आदमी ©विपिन बहार
गजल वज्न-(2122,2122,2122,212)
कर्म कैसे कर दिए हैं आँकता हैं आदमी ।
आज घर मे छुप-छुपाकर झाँकता हैं आदमी ।।
रोजगारी का दिवाला अब निकलता ही गया ।
मोर बनकर देहरी पर नाचता हैं आदमी ।।
पाप सारे अब यही पर भर विदा होंना सुनों ।
खुद हकीकत से अभी भी भागता हैं आदमी ।।
दौर ऐसा आजतक ना ही कभी देखा गया ।
डर रहे हैं देख अब- जब खाँसता हैं आदमी ।।
मौन होकर सब तमाशा देखते हैं आज तो ।
मौत से जब हर घड़ी वो काँपता हैं आदमी ।।
रोग ने तो संग साथी दूर देखो कर दिया ।
दूर से ही अब कफ़न तो नापता हैं आदमी ।।
©विपिन"बहार"
👏👏👏👏
जवाब देंहटाएंआज की परिस्थितियों को बयां करती बेहद सटीक रचना👏👏👏
जवाब देंहटाएं👌👌
जवाब देंहटाएंसटीक सामयिक सृजन 👌👌👌👏👏👏
जवाब देंहटाएंवाह बहुत खूब 👌👌
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