ख़्वाबों के दरख़्त ©रेखा खन्ना

 रात ख्वाबों के बीज बोए थे

पलकों तले दरख़्त उग आए थे।।


फूलों के खिलने से पहले ही

सूरज की किरणों ने सारे दख़्त जलाए थे।।


स्वप्न, सत्य के धरातल पर कहीं टिक ना पाए थे

सत्य के पत्थरों ने स्वप्न सारे चिटकाए थे।।


कुछ नुकीले तीर भी जुबां-ए-तरकश से निकल आए थे

शूल, दिल में यूं गड़े कि हम मन ही मार आए थे।।

 ©रेखा खन्ना

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

कविता- ग़म तेरे आने का ©सम्प्रीति

ग़ज़ल ©अंजलि

ग़ज़ल ©गुंजित जैन

पञ्च-चामर छंद- श्रमिक ©संजीव शुक्ला 'रिक्त'