ग़ज़ल ©लवी द्विवेदी

बहर बहरे रमल मुसम्मन सालिम

फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन 

2122 2122 2122 2122



 आस मुज़रिम यार हो जब ख़्वाहिशे भी रूठती है, 

कोशिशों के दौर में याँ ज़िंदगी भी लूटती है। 


हम नही क़ाबिल, हमारी हैसियत क्या आज जानें, 

आख़िरी उम्मीद भी होकर अना घर ढूँढती है। 


जिक्र है, बे-रब्त है, फिर भी यकीं बेज़ार है क्यों? 

रम्ज़ अक्सर रार सहकर बेतहाशा कोसती है। 


लुत्फ़ इशरत का फ़रेबी, खैर जाने दो यहाँ से, 

हम तकल्लुफ़ क्यूँ उठाए, बेकरारी रोकती है। 


आज हम नादाँ नहीं जो बंदिशों को आजमा लें, 

फ़िर यहाँ पर कैद हो क्यों आजिजी गम जोहती है। 


देख ये राहत, किताबें पढ़ रही जो आब हैं क्या? 

इल्म है फिर भी गुमाँ है, जख़्म हैं वो शरबती है। 

©लवी द्विवेदी

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