माँ और शृंगार ©रेखा खन्ना

 माँ दो वक्त ही शृंगार करती है। एक बार जब वो दुल्हन बनती है तब अपने मनमुताबिक शृंगार करती है और दूसरी बार तब जब वो अर्थी पर चढ़ती है पर तब उसके मनमुताबिक शृंगार नहीं होता है, तब अर्थी के मुताबिक शृंगार किया जाता है उसका। 


बीच के बाकी दिनों में वो सिर्फ घर और परिवार के कामों में उलझी रहती है। शृंगार और खुद को सजाने-संवारने को दरकिनार कर के सिर्फ परिवार की चिंता में घुलती रहती है।

कभी खाने की चिंता, कभी कपड़ों के धुलने की और सूखने की चिंता, गर्मी में सर्दियों की तैयारी की चिंता तो सर्दियों में गर्मी की चिंता।


अगर गौर से देखा जाए तो गृह-प्रवेश के साथ ही जिम्मेदारियों का शृंगार कर लेती है। चाह कर भी इस से उसे मुक्ति नहीं मिलती है। बस अपनी अंतिम घड़ी तक परिवार की चिंता में घुलती ही रहती है। 


माँ वो प्राणी होता है घर का जिसे अक्सर नज़रंदाज़ कर दिया जाता है। कितने सास-ससुर, पति यां बच्चे होंगे जो माँ को कहते होंगे की अपना भी ख्याल रखो। अपनी भी इच्छाओं को पूरा करो, कब तक खुद को भूल कर हमारे पीछे दौड़ती रहोगी। घर के हर सदस्य का ख्याल रखती हो पर अपना ख्याल रखना क्यूँ भूल जाती हो? क्या सच में हम माँ को कभी ऐसा कह पाएंँ है? शायद कभी भी नहीं। 


माँ, पत्नी सब काम करती है चुपचाप बिना किसी सवाल के, क्योंकि उसे पता है कि ये उसकी जिम्मेदारी है पर अक्सर इस काम का श्रेय भी हम उसे नहीं देते हैं। वो तो बस बदले में सारी उम्र यही सुनती है कि घर में ही तो रहती हो सारा दिन, इसके अलावा करती ही क्या हो? पर हम ये ताना मारते हुए भूल जाते हैं कि पका हुआ खाना, धुले हुए बर्तन, साफ घर, साफ और प्रेस किए हुए कपड़े, हमारी जरूरत की हर चीज़ का ध्यान वो घर में रह कर ही करती है।


हम जैसे मतलबी लोग अपने सुख सुविधाओं के लिए, माँ की तमन्नाओं को देख ही नहीं पाते हैं। कभी उसे कह ही नहीं पाते हैं कि आज आराम करो और अपने मनमुताबिक शृंगार कर के घूमने जाओ, कुछ वक्त खुद को भी दो, कुछ वक्त के लिए खुद को एक बार फिर जिंदा कर लो। 


© रेखा खन्ना

टिप्पणियाँ

  1. अत्यधिक हृदयस्पर्शी रचना मैम

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  2. अत्यंत हृदयस्पर्शी रचना 👏👏🌹🌹🙏🙏

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  3. अत्यंत संवेदनशील एवं गहन संवेदना समेटे हुए 🙏🏼💐

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