ग़ज़ल-अमन ©संजीव शुक्ला


जो मिलें ख़ुलूस के काफ़िये...तो अमन की कोई ग़ज़ल कहूँ  l

जो उगा रही हैँ सियासतें....उन्हें नफ़रतों की फ़सल कहूँ l


के करोगे माज़ी के नाम कब तक औऱ खुद की  ख़ामियाँ... 

जो गुज़र रहा है वो आज है, जो गुज़र चुका उसे कल कहूँ l


न तो ईद में वो मुहब्बतें.......  न दिवालियों में वो रौशनी..... 

कहीं खो रहीं हैँ जो रौनकें,तो सियासतों का फ़ज़ल कहूँ l


ये जो मज़हबों का खुमार है.... ये अजीब वक्ती बुखार है... 

इसे फ़िक्र कह दूँ मैं कौम की...,या मुनाफिकों का शग़ल कहूँ l


ये हैँ सात रंग की वादियाँ,..... ये धनक ये ज़न्नत सा जहाँ...... 

के मिसाल इस तहज़ीब पर.. है सियाहियों का दखल कहूँ l


मैं तलाशता हूँ प्रसाद, लाल.............. उसूल वाले सियासती... 

दिखे खुदनिगर की ज़मात में....कोई अक़्स जिसको अटल कहूँ l

©संजीव शुक्ला 'रिक्त'

टिप्पणियाँ

  1. बेहद खूबसूरत उम्दा गज़ल 👏👏💐💐💐

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  2. बहुत उम्दा ग़ज़ल 🙏🏻👍🏻👏🏻👏🏻

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