हमारी दीपावली ©गुंजित जैन

 शहर के पुराने बाज़ार की एक सँकरी गली की कई दुकानों में रफ़ीक़ खाँ साहब की चूड़ियों की एक छोटी सी दुकान हुआ करती थी। छोटी वो केवल नाम की ही थी, वरना वहाँ छोटी-बड़ी, तरह तरह की सुंदर सुंदर चूड़ियों की भरमार थी। दूर दूर से लोग उस गली में उनकी दुकान की उन छोटी गोलाकार अद्भुत कलाकारी, अर्थात चूड़ियों को खरीदने आते थे।


रफ़ीक़ साहब आस-पास के सभी दुकानदारों में ख़ुदको सबसे अधिक भाग्यशाली माना करते थे। भाग्यशाली मानने की वजह उनकी प्रसिद्धि को न समझा जाए, इसकी असल वजह थे उनकी दुकान में काम करने वाले दोनों कारीगर। वे स्वयं को दुनिया के दो सबसे बेहतरीन कारीगरों से घिरा मानते थे। उनकी इस बात से उनके सभी साथी दुकानदार भी सहमत थे। वाकई, अल्लाह ने रफ़ीक़ साहब को दो चुनिंदा हीरों से नवाज़ा था। एक का नाम था मुकेश, और दूसरा रफ़ीक़ साहब के दूर के रिश्तेदार का लड़का, अली। 

आने वाले हर ग्राहक से रफ़ीक़ साहब इन दोनों की तारीफ़ करने में कभी नहीं चूकते थे। जैसे ही किसी ग्राहक को कोई चूड़ी पसंद आई, वैसे ही उसको बनाने वाले के गुणगान शुरू, "अल्लाह का रहम है, हमें कारीगरों की शक़्ल में खरा सोना बख़्शा है!"

और उनके दोनों कारीगर भी इसी तरह अपने सेठ जी का बहुत आदर और गुणगान किया करते थे।


रफ़ीक़ साहब का एक बेटा भी था, अहमद। कुछ उन्नीस वर्ष की आयु होगी उसकी! कभी कभी रफ़ीक़ साहब के दोनों हीरों से काम सीखने वो अपने अब्बा के साथ आ जाया करता था, तो कभी त्योहारों के समय दुकान में बढ़ते काम को देखकर अब्बा का हाथ बटाने।

इसी विचार के साथ, इस बार दीपावाली के सात-आठ दिन पहले से वो रोज़ अब्बा के साथ आने लगा।


दीपकों के इस पावन त्योहार से पहले ही उनकी दुकान ग्राहकों से रोशन थी। यकीनन सबको थकान बहुत होती थी, मगर लक्ष्मी जी भी अक़्सर मेहनतकशों के घर रहना ही पसंद करती हैं। 


एक रोज़ मुकेश और अली अपनी कारीगरी में लीन हुए ही बातें कर रहे थे। मुकेश अपने गाँव की दीपावाली के बारे में अली को विस्तार से बता रहा था। और अली अपने चेहरे पर एक खूबसूरत चाव लिए उसे सुना जा रहा था। 

"पिछले दो सालों से कोरोना के चलते गाँव नहीं जा पाया, अगर भगवान ने चाहा तो इस बार दीपावाली पर आई-बाबा के पास गाँव जाऊंगा" कहता हुआ मुकेश मुस्कुराने लगा। उस मुस्कुराहट में एक पीड़ा साफ़ दिखाई पड़ रही थी और साथ ही उसमें एक बिखरी उम्मीद नज़र आ रही थी। 

"बिखरी" इस बार इतनी अधिक ग्राहकी की वजह से। भला इतने काम को बीच में छोड़कर कोई कैसे जाए!


रफ़ीक़ साहब अपने गल्ले के पास बैठे ये सब सुन रहे थे। मुकेश के माता-पिता के इंतज़ार का एहसास, उन्हें अहमद के बचपन में, उनके किये इंतज़ार में हो गया था। माता-पिता के भावों का कोई मज़हब कहाँ होता है! इसी ख़याल के साथ उन्होंने ठान लिया कि इस साल की दीपावाली पर एक बेटा अपने माँ-बाप से दूर नहीं रहेगा।

अहमद से कहकर उन्होंने कुछ दो सौ रुपये के मिट्टी के दीपक और मुकेश के लिए गाँव की एक टिकट मंगवाई। "ज़रा मुकेश भाईजान को बुलाकर लाना" कहकर उन्होंने अहमद से मुकेश को बुलाने को कहा। 

"भाईजान, अब्बा बुला रहे हैं!" अहमद ने इतना कहाँ ही था कि मुकेश अपने सेठ जी के आदर में एकाएक खड़ा हो गया और बाहर की तरफ़ आने लगा। 


"जी...जी सेठ जी कहिए" एक काले कपड़े से हाथ पौंछता हुआ वो सेठ जी के नज़दीक आकर खड़ा हो गया।

रफ़ीक़ साहब ने गल्ले को खोलने के बाद कुछ पैसे और पास रखे दीपकों को आगे बढ़ाते हुए कहा, "अब तो तेरी दीपावाली आ रही है, ले ये पैसे रख मेरी तरफ़ से मिठाई के लिए।" 

"मेरी दीपावाली नहीं आ रही सेठ जी" मुकेश सरलता से बोला, "हमारी दीपावाली आ रही है। आपकी, मेरी, हम सबकी दीपावाली।" 

"हाँ बिल्कुल, हम सबकी दीपावाली" रफ़ीक़ साहब कुछ अधिक खिलकर मुस्कुराने लगे "आई-बाबा को भी मेरी तरफ़ से मिठाई और दीपावाली की बधाई देना।" 

"जी सेठ जी, पार्सल करवा दूंगा। इस बार काम ज़्यादा है तो गाँव तो अगली बार ही जा पाऊं शायद"  कहता हुआ मुकेश फ़िर वो परिचित मुस्कान लिए मुस्कुराने लगा, वही पीड़ा और बिखरी उम्मीद भरी मुस्कान!

"अरे पागल, पार्सल क्यों। सुबह सात बजे की ट्रेन है, यह दीपावाली आई-बाबा के साथ मनाना" कहते हुए उन्होंने टिकट मुकेश की तरफ़ बढ़ाया, और मुस्कुराने लगे।


"पर सेठ जी..." इसके आगे मुकेश कुछ कहता उतने में खाँ साहब ने बात काटते हुए कहा, "पर-वर कुछ नहीं। सेठ मैं हूँ और मैंने तुझे जाने को कहा है, बात ख़त्म। यहाँ का काम हम देख लेंगे। तू टिकट रख और आई-बाबा को खुशखबरी दे दे।" 

रफ़ीक़ साहब फैसले के पक्के आदमी थे, वे टस से मस होते नज़र नहीं आ रहे थे।

मुकेश की आँखों में एक अजीब सी चमक आ गयी। वो सेठ जी के आशीर्वाद लेने को झुका ही था कि सेठ जी ने उसको ऊपर उठाकर गले लगा लिया और बोले "चल अब जा, ट्रैन सुबह जल्दी है तो फटाफट तैयारी कर घर जाकर।"


अली, अहमद और रफ़ीक़ साहब को दीपावाली की बधाई देकर वो निकल ही रहा था कि सेठ जी ने आवाज़ लगाई, 

 "अच्छा सुन, आई के हाथ का हलवा लाना मत भूलना। आख़िर दीपावाली तो हमारी भी है भई!" इतना कहते हुए सेठ जी हँसने लगे। "जी सेठ जी, हमारी दीपावाली!!" मुकेश की आँखें नम थीं, और चेहरे पर मुस्कान थी। मगर इस बार एक नई, उज्ज्वलित मुस्कान, ठीक दीपावली के दीपकों की तरह।

© गुंजित जैन

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

कविता- ग़म तेरे आने का ©सम्प्रीति

ग़ज़ल ©अंजलि

ग़ज़ल ©गुंजित जैन

पञ्च-चामर छंद- श्रमिक ©संजीव शुक्ला 'रिक्त'