पहला प्यार©परमानन्द भट्ट

 एक मुद्दत के बाद दिल के दरवाजे

पर जानी पहचानी

दस्तक हुई

उसने घबरा कर  अन्दर

साँकल लगा दी

बंद कर दी सारी

खिडकियाँ

मगर यह क्या वह तो

हवा का झोंका बन

साधिकार दाखिल हो गया

झिर्री के रास्ते सीधे

कमरे के भीतर

उसने आँखें बंद कर ली

मगर तब तक वह दाखिल

हो चुका था उसके वजूद में

उसने कहा

क्या चाहते हो

वह बोला

अपने अकेले पन का इलाज

वह बोली

न तुम अकेले न हम अकेले

फिर कैसा अकेलापन

वह बोला

मै तुम्हारे प्यार का प्रथम अहसास हूँ

एक भीगा हुआ नाजुक लम्हा हूँ

मैं

जब भी चाहूंगा, चला आऊंगा

मुझे रोक नहीं पाओगी

तुम

मगर हम क्यूँ, और कौन है कमरे में

यह तुम्हारे बदन से अलग सी

महक  क्यूँ आ रही है

पहले तो यह नहीं थी

वह कहना चाहती थी 

तुम भी बदन की महक में अटके

हुए हो दुनिया की तरह

काश रूह की खुशबू को महसूस

कर पाते तुम

मगर खामोश रही वह

जैसे झील में कंकर फैकते ही

गोल गोल लहर पूरी झील

को घेर लेती है

वैसे ही घिरा हुआ पा रही थी

वह अपने आप को

झील के तो उपर लहरें उठती है

भीतर होती है गहन शान्ति

मगर वह उपर ही उपर मुस्कुरा

रही थी

दुनिया की तरह

और भीतर थी जानलेवा बेचैनी

जिसे वह बाँटने की कोशिश

कर रही थी

अपने अकेले पन के साथी के

साथ

बहुत भीगे हुए माहौल में



©परमानन्द भट्ट

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

कविता- ग़म तेरे आने का ©सम्प्रीति

ग़ज़ल ©अंजलि

ग़ज़ल ©गुंजित जैन

पञ्च-चामर छंद- श्रमिक ©संजीव शुक्ला 'रिक्त'