ग़ज़ल©गुंजित जैन

 सफ़र के दरमियाँ ही एक मंज़िल हार जाता हूँ,

मैं अक़्सर बंद कमरे में ही महफ़िल हार जाता हूँ।


निगाहों को झपकने का सुनो जब खेल होता है,

वो मुझसे हारती है और मैं दिल हार जाता हूँ।


मिरे हर्फ़ों, ग़ज़ल, शेरों में वो जब साथ होती है,

ज़हन में दब रही हर एक मुश्किल हार जाता हूँ।


किनारे से मिरी महबूब जब सजकर गुज़रती है,

ज़मीं होकर भी कश्ती से, मैं साहिल हार जाता हूँ।


खुली ज़ुल्फ़ों के आगे और "गुंजित" कुछ नहीं बचता,

वो मुझको जीत लेती है, मैं क़ामिल हार जाता हूँ।

©गुंजित जैन

टिप्पणियाँ

  1. बेहद खूबसूरत और रूमानी गज़ल 👏👏👏👏💐💐💐💐❤❤❤❤

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  2. बेहतरीन अल्फ़ाज़ बेहद खूबसूरत गज़ल 💐💐

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