वो दौर ©सूर्यम मिश्र

हे प्रिय सच में बड़ा गज़ब था,

मुझे देख कर वो छिप जाना 
सबसे बच कर छत पे आना 
आ कर जाना जा कर आना 
किसी तरह यदि आँख मिले तो 
दाँत दिखा कर मुझे चिढ़ाना 
फ़िर खिड़की के उस पर्दे में
जिसमें कि सूरज चित्रित था 
अधर मध्य में उसे दबाकर  
घर में निकला चाँद छिपाना 
जीवन का वो दौर अजब था 
हे प्रिय सच में बड़ा गजब था 

विद्यालय में पहले आकर 
कोने-कोने धाक ज़माना 
कहीं सीट पर जमीं धूल में 
वो गुलाब के फूल बनाना 
मेरी वाली सीट साफ़ कर 
मुझे देख कर वो मुस्काना
देख सभी को सब सा रहना 
मुझे देख कर हम हो जाना 
जीवन का वो दौर अजब था 
हे प्रिय सच में बड़ा गजब था

लाल दुपट्टा चूनर वाला,जो 
लाया था मैं मेले से,
वो छल्ले पे नाम लिखाकर,
एक जनवरी को लाया था 
वो काला खट्टा चूरन औ इमली 
खाना खुब भाया था 
पक्के कैथे,करौंद खट्टी,अहा 
बताऊँ क्या लगते थे!!
नमक छिपाकर तुम लाती थी
आम तोड़ कर लाता था मैं
बिन छिलके का तुम खाती थी
छिलके वाला मैं खाता था
जीवन का वो दौर अजब था
हे प्रिय सच में बड़ा गजब था..
©सूर्यम मिश्र

टिप्पणियाँ

  1. बहुत-बहुत सुंदर रचना 👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻

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  2. अत्यंत सुंदर वर्णन :)👏👏

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  3. वाह , बेहद प्यारा ❣️❣️❣️

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  4. बहुत बहुत खूबसूरत कविता ❤❤

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