कागज वाली नाव ©नवल किशोर सिंह
कागज वाली नाव चली है,
बोल-वचन की लिए पिटारी।
सहमी सरिता पानी कम है।
पतवारों की आँखें नम है।
करवाने में भान भगीरथ,
भाट हुआ जाता बेदम है।
माँझी जाल लिए हाथों में,
ढूँढ़ रहा है मीन-सवारी।
चमक-दमक है लिए किनारा।
मृग-तृष्णा बन बहती धारा।
भीट कहाँ बस भँवर दूर तक,
नाव यही बस एक सहारा।
शुल्क नहीं सुविधा का कोई,
महज वोट की है घटवारी।
नाव मचल जब चली धार में।
जाकर फँसती बीच ज्वार में।
प्रत्यावर्तन गुण भाटों का,
खेना दुर्वह सिंधु-सार में।
परनाले का दिए भरोसा,
रेतों से तब करते यारी।
देख उधर रेतों के टीले।
अपने ही हैं कुटुमकबीले।
निकल नहीं वे रहे वहाँ से,
दलदल होते बड़े रसीले।
स्रोत कहाँ सागर में मीठा?
खारे जल का वह अधिकारी।
खेतों में भी रेती बोना।
रेतों में ही फलता सोना।
जल की चिंता छोड़ सनेही,
जल देगा घड़ियाली रोना।
बीत चुनावी जाता सावन,
किसने फिर उस पार उतारी?
-©नवल किशोर सिंह
हार्दिक आभार तुषार जी
जवाब देंहटाएंअत्यंत उत्कृष्ट एवं सटीक शब्दावली में सार्थक सृजन 💐💐🙏🏼
जवाब देंहटाएंगहन भावपूर्ण एवं सटीक सृजन सर 👏👏👏💐💐💐💐
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सार्थक रचना 🙏🏻👌👌👏🏻👏🏻
जवाब देंहटाएंअत्यंत अद्भुत, उत्कृष्ट भाव🙏🙏
जवाब देंहटाएंअद्भुत सिरजी 🙏🙏
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचना सर l 🙏
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