मानभंग ©नवल किशोर सिंह

 लुंचित पड़ी भू पर लुठित, आखेट कोई कर गया ।

चैतन्य को दल घात से, संताप मन में भर गया ।

पीड़ा कहर से शीत सी, वो काँपती भयभीत सी,

हैवान तेरा कर्म यह, ममता विलज्जित कर गया ॥


सिंगार है खंडित हुआ, चीत्कारती वह ज़ोर से ।

कल्याण को आया नहीं, कोई किसी भी ओर से ।

संभालती परिधान को, मर्दित हुये उस मान को,

मोहन मगन निज भाव में, अंजान बन उस शोर से॥


यह काल है विकराल सा, संस्कार है लोपित हुआ ।

भौतिक विषय मदपान से, उजियार फिर गोपित हुआ।

अंधेपना में ढूंढते,  कारण पकड़ के मूढ़ते ,

वो क्यों चली उस ओर थी, आरोप यह रोपित हुआ ॥ 


माता कहो किस भाव से, संतान को है पालती ।

यह वेदना कब चूकती, उनके हृदय भी सालती ॥

हम नीव ऐसी ढाल दें , साहस सुता में डाल दें,

दुर्गा कहाएँ बेटियाँ, दुष्कर्मनों को बालती ॥

-©नवल किशोर सिंह


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टिप्पणियाँ

  1. अत्यंत भावपूर्ण, संवेदनशील🙏🙏

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  2. अत्यंत संवेदनशील एवं भावपूर्ण सृजन 🙏🏼🙏🏼🙏🏼💐💐
    अत्यंत प्रभावशाली प्रस्तुति 🙏🏼🙏🏼

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  3. अत्यंत मार्मिक, संवेदनशील एवं भावपूर्ण रचना... शानदार प्रस्तुति 🙏🙏🙏💐💐💐💐

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  4. अत्यंत प्रभावशाली और समसामयिक 👌👌👌👌👌

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  5. बहुत ही भावुक संवेदनशील 🙏🏻

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  6. बहुत ही भावुक संवेदनशील 🙏🏻

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  7. अत्यंत मार्मिक
    सुंदर प्रस्तुति आ0

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