सँभलते-सँभलते ©परमानन्द भट्ट

नज़र को झुकाए सँभलते सँभलते

तेरे दर पे आये  सँभलते सँभलते


छुपाकर गमों को, हँसे भी थे हम पर

नयन डबडबाए सँभलते सँभलते


जमाने से नज़रें बचाते हुए वो

मेरे पास आए सँभलते सँभलते


कलेजा कटा था विदा के क्षणों में

 मगर मुस्कराये  सँभलते सँभलते


चले जा रहे हम तेरे दर से गम की

ये गठरी उठाये सँभलते सँभलते


बहुत चाहा हमने रहें होश में पर

कदम लड़खडाए  सँभलते सँभलते


 हकीकत जो जानी तो दैर-ओ- हरम से

'परम ' लौट आये सँभलते सँभलते


©परमानन्द भट्ट

टिप्पणियाँ

  1. वाह क्या बात सर बहुत सुंदर रचना 🙏🙏

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  2. लाजवाब ग़ज़ल सर जी..... वाह्हहहहहहहह

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