सँभलते-सँभलते ©परमानन्द भट्ट
नज़र को झुकाए सँभलते सँभलते
तेरे दर पे आये सँभलते सँभलते
छुपाकर गमों को, हँसे भी थे हम पर
नयन डबडबाए सँभलते सँभलते
जमाने से नज़रें बचाते हुए वो
मेरे पास आए सँभलते सँभलते
कलेजा कटा था विदा के क्षणों में
मगर मुस्कराये सँभलते सँभलते
चले जा रहे हम तेरे दर से गम की
ये गठरी उठाये सँभलते सँभलते
बहुत चाहा हमने रहें होश में पर
कदम लड़खडाए सँभलते सँभलते
हकीकत जो जानी तो दैर-ओ- हरम से
'परम ' लौट आये सँभलते सँभलते
©परमानन्द भट्ट
वाह्ह
जवाब देंहटाएंवाह बहुत खूब सरजी🙏🙏
जवाब देंहटाएंवाह-वाह क्या कहने लाजवाब 💐💐💐💐🙏🏼
जवाब देंहटाएंसुंदर रचना 🙏
जवाब देंहटाएंवाह क्या बात सर बहुत सुंदर रचना 🙏🙏
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार, आप सभी का
जवाब देंहटाएंवाह🙏
जवाब देंहटाएंलाजवाब ग़ज़ल सर जी..... वाह्हहहहहहहह
जवाब देंहटाएंकमाल गज़ल हुई सर 👏👏
जवाब देंहटाएंवाऽऽह बहुत ख़ूब 💐
जवाब देंहटाएं