दुखों के कैद खाने से ©परमानन्द भट्ट

 यहाँ अब रोशनी होगी, नया सूरज उगाने से

अंधेरा कम नहीं होगा, फ़कत दीपक जलाने से


हमें हर बार वो मिलकर, , नये कुछ जख़्म देता है

सुकूँ मिलता उसे शायद, हमारा दिल  दुखाने से


सजा कर प्यार चेहरे पर, जगाते होठ पर जादू

हजारों फूल खिलते तब, तुम्हारे मुस्कुराने से


 बजी है सांस में सरगम, महकता मोगरा मन में

जले है सैकड़ों दीपक, तुम्हारे लौट आने से


हँसी के साथ में थोड़ा, यहाँ रोना जरूरी है

खुशी का कर्ज बढ़ता है, महज हँसने हँसाने से


 कफ़स अवसाद का सारी, उड़ानें छीन लेता हैं

"सुनो अब भी निकल आओ, दु:खों के कैदखाने से"


' परम 'यह प्यास नदियाँ की, मिलाती सिंधु से उसको

उसे मिलता मजा सच्चा, सदा खुद को मिटाने से


©परमानन्द भट्ट

टिप्पणियाँ

  1. बहुत ही बेहतरीन वाह्ह्ह्ह 🙏

    जवाब देंहटाएं
  2. वाह...बेहद खूबसूरत और उम्दा ग़ज़ल सर जी💐💐💐💐💐💐👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सुंदर ग़ज़ल सरजी🙏🙏

    जवाब देंहटाएं
  4. बेहद खूबसूरत गज़ल 👌👌👌🌹🌹🌹

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

कविता- ग़म तेरे आने का ©सम्प्रीति

ग़ज़ल ©अंजलि

ग़ज़ल ©गुंजित जैन

पञ्च-चामर छंद- श्रमिक ©संजीव शुक्ला 'रिक्त'