ग़ज़ल ©लवी द्विवेदी 'संज्ञा'

नमन, माँ शारदे 

नमन, लेखनी

बहर- बहरे मज़ारिअ मुसमन अख़रब मकफूफ़ मकफूफ़ महज़ूफ

मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईलु फ़ाइलुन

२२१ २१२१ १२२१ २१२



लिक्खा हसीन आसमाँ जब जब कही ग़ज़ल,

हमने तो चाँद टाँक के हर दिन बुनी ग़ज़ल।


वो जो गए हैं ढूँढने महताब में निशां,

खोजें, जमीं पे चाँद ने कितनी लिखी ग़ज़ल?


ला 'इल्म, कैसे वो गिने सिक्के नसीब के,

शौकत चुरा न ले ये कोई, सोचती ग़ज़ल।


ताउम्र कैद में रहे खामोश लफ्ज़ जो,

होकर रिहा न कह सके सच, मर गई ग़ज़ल।


महफ़िल सजी तो क्या सजी? हों गर जहीन सब,

इक सरफिरे अदीब को बस ढूँढती ग़ज़ल।


काँटों की फ़ितरतें 'लवी' इस कदर हैं छिपी,

फूलों को ना ख़बर हुई कैसे चुभी ग़ज़ल।

©लवी द्विवेदी 'संज्ञा'

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