ग़ज़ल ©परमानन्द भट्ट

नमन, माँ शारदे 

नमन, लेखनी 



कहानी मुख्तसर लिख तू मगर कुछ खूबसूरत हो,

भले छोटा सा हो लेकिन सफर कुछ खूबसूरत हो। 


कभी माँगे नहीं तुमसे गुलों की काफिले मैंने,

जरा सी छांव दे ताकि डगर कुछ खूबसूरत हो। 


 सभी को आँख दी है तो सलीका भी सिखा जिससे,

निगाहें हो सलोनी सब, नज़र कुछ खूबसूरत हो। 


मिलें जब भी किसी से हम, हमेशा याद वो रक्खे,

हमारी बात का उस पर, असर कुछ खूबसूरत हो। 


महल सड़कें बढाने से, यहाँ पर कुछ नहीं होगा,

मुहब्बत भी बढ़ा  जिससे, नगर कुछ खूबसूरत हो। 


कभी आ के मिलो मुझसे  भले ही ख्वाब में जिससे,

अजाने शहर  में मेरा , बसर कुछ खूबसूरत हो। 


इधर तो कुछ नहीं ऐसा, 'परम' सुंदर कहें जिसको,

चलो उस पार चलते हैं, उधर कुछ खूबसूरत हो। 


©परमानन्द भट्ट

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