कविता धन ©रजनीश सोनी

 गुण-ग्राहक से  मिले  प्रसंसा, 

सजती  और  सुघर  होती है। 

सतत  सहेजे    साहुकार  सा, 

कवि का धन कविता होती है।। 


विविध विधा के होते नग-धन, 

हर  नग  की  आभा  होती  है। 

शब्द  नगीने  सा कवि  जड़ता, 

जेवर  सी    कीमत   होती  है। 

सतत   सहेजे    साहुकार  सा, 

कवि का धन कविता होती है।। 


याद नहीं   धन   जमा डायरी

वक्त  पड़े   तड़पन   होती  है। 

कवि कंठस्थ रखे जब कविता, 

तब  ही   जेब  गरम  होती  है। 

सतत   सहेजे    साहुकार  सा, 

कवि का धन कविता होती है।। 


कुछ  गम्भीर  बड़ी नोटों  सी, 

कुछ में  ही  प्रचलन  दोती है। 

धमा चौकड़ी  खूब  करें कुछ, 

सिक्कों सी खन खन होती है। 

सतत   सहेजे    साहुकार  सा, 

कवि का धन कविता होती है।। 


कवि श्रम करते कलम चलाते, 

तब  पूँजी   अर्जित   होती  है। 

बिन श्रम ही  कुछ जेब कतरते, 

कवि  धन  भी  चोरी  होती  है।

सतत   सहेजे    साहुकार   सा, 

कवि का धन  कविता होती है।।


चोर चतुर  पर  नहीं  समझता, 

कवि-कवि फिर चर्चा होती है। 

कभी  मंच  में  जब  पढ़ जाये, 

तब  उसकी   निन्दा  होती  है। 

सतत   सहेजे    साहुकार  सा, 

कवि का धन कविता होती है।।


©रजनीश सोनी 

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