कविता- दुविधा ©सौम्या शर्मा

नमन, माँ शारदे 

नमन, लेखनी 


अंतर्मन की दुविधा का मैं क्या बतलाऊं हाल सखी!

कैसे रिश्तों को संजोऊँ , कैसे रखूं संभाल सखी?

ले कोरा मन श्वेत पत्र , संबंध निभाती आई हूं!

पर यह जटिल स्वरूप जगत का, अब तक समझ न पाई हूं!


आवश्यकता पर हैं केंद्रित,सबके मृदु संबंध यहां!

बाहर दिखे प्रशंसा पर भीतर पलते हैं द्वन्द यहां!

ऐसे दोमुख आनन पर,सर्वस्व लुटाती आई हूं!

पर यह जटिल स्वरूप जगत का,अब तक समझ न पाई हूं!


मैं जिनके सँग पली बढ़ी हूं,खेली कूदी आंगन में!

उन्हें बदलता कैसे देखूं, कैसे पीर सहूं  मन में?

मन सबका रखने को मैं निज मन बहलाती आई हूं!

पर यह जटिल स्वरूप जगत का अब तक समझ न पाई हूं!


कहां लुप्त है वह पवित्रता, जीवन का आधार रही !

मन का निर्मल सुख औ भावों का पावन आगार रही !

लेकर दृग में नीर सदा मुस्कान लुटाती आई हूं!

पर यह जटिल स्वरूप जगत का,अब तक समझ न पाई हूं!

©सौम्या शर्मा

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