कविता ©सूर्यम् मिश्र
निलय भर भीरुता अनहद,
व्यथित अनुनाद अंतस में।
निराशा पूर्ण अवरोधी,
व्यथा का वास नस-नस में ।।
प्रवर्धन भाग्य का किंचित,
सदा दुर्भाग्य हावी है।
अकिंचित चेतना अभिमत,
प्रखरता रक्त स्रावी है।।
सुनो हे! अग्नि के पोषक,
कहाँ, क्या, कौन हो? सोचो।
विफलता घूर कर देखे,
उठो उसके नयन नोचो।।
करो निश्चय अटल यदि तुम,
रहेगा शक्ति का मेला।
पिपासा शांत कर देगी,
महासंग्राम की बेला।।
पवन के पंख धारण कर,
गगन को भूमि पर लाओ।
शिराओं में भरो विद्युत,
भुवन में गड़गड़ा जाओ।।
मनुज तुम मौन मत बैठो,
दहाड़ो सिंह से बढ़कर।
लगा दो पाँव की रज को,
नियति के वक्ष पर चढ़कर।।
धमकते आ रहे तम को,
उठो पथभ्रष्ट ही कर दो।
कराओ काल नतमस्तक,
"नहीं" को नष्ट ही कर दो।।
समय का चक्र मोड़ो तुम,
न सीधी चाल हो पाए।
हथेली भींच कर मारो,
धरा पाताल हो जाए।।
©सूर्यम् मिश्र
अत्यंत ओजपूर्ण उत्तम शब्द प्रवाह, उत्तम कविता भैया 🙏
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट कविता भाई
जवाब देंहटाएंअत्यंत ओजपूर्ण कविता सृजन बेटा 👏👏👏🌹🌹
जवाब देंहटाएंअत्यंत ओजपूर्ण धाराप्रवाह कविता भाई 🌹
जवाब देंहटाएंअत्यंत प्रभावशाली एवं प्रेरक कविता 💐
जवाब देंहटाएंअत्यंत ओजपूर्ण कविता
जवाब देंहटाएं