ग़ज़ल ©संजीव शुक्ला

 भरोसा है जिन्हे खुद पर,खज़ाने छोड़ देते हैँ l

परिंदे पेट भर जाए........तो दाने छोड़ देते हैँ l


हवाएं नीम की,आँगन से अक्सर पूछ लेती है...

घरों के लोग कैसे घर पुराने छोड़ देते हैँ l


वो गलियाँ गाँव की,शादाब बचपन की हसीं यादें..

शहर की चाह मे मौसम सुहाने छोड़ देते हैं l


वो जिनके आ चुके हैँ आग की ज़द में कभी दामन..

वो अक्सर दूसरों के घर जलाने छोड़ देते हैँ l


कहाँ हैं,ज़िन्दगी में हर कदम जिनकी जरूरत है ....

गुज़र जाते हैं दुनियाँ से,फ़साने छोड़ देते हैँ l


बुलंदी की हवस में,'रिक्त' मैं हैरान हूँ कैसे ...

न जाने लोग क्यूँ गुज़रे जमाने छोड़ देते हैँ l

©रिक्त

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