ग़ज़ल ©प्रशांत 'ग़ज़ल'

नमन, माँ शारदे 

नमन, लेखनी 

 

अगर ज़ज्बात ज़ाहिर हो तो शाइर हो ।

अगर कहने में माहिर हो तो शाइर हो ।


मुहब्बत क्या, सियासत क्या, हुकूमत क्या ?

हक़ीक़त के मुसाफिर हो तो शाइर हो।


जहाँ-भर की ख़बर रखकर अगर फिर भी,

जहाँ‌ से ग़ैरहाज़िर हो तो शाइर हो।


बड़ा शातिर‌ ज़माना है‌ , मिटा देगा,

अगर तुम और शातिर हो तो शाइर हो।


किसी के दर्द की हद तक कभी पहुंचो,

महज़ हर्फ़ों के साहिर हो तो शाइर हो ?


'ग़ज़ल' तुम कह नहीं पाए, नहीं कुछ गम,

अगर औलाद शाइर हो, तो शाइर हो। 


©प्रशांत शर्मा 'ग़ज़ल'

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