नज़्म - सच नहीं ©अंशुमान मिश्र
कि फिर से मैं चला वहांँ
जो था तिरा मिरा जहांँ
नजाकतों की बारिशें
वो हुस्न की नवाजिशें,
वो एक मैं, जो था तिरा
वो एक तू, जो था मिरा,
उन्हें बुला नहीं सका,
मैं सब भुला नहीं सका,
जो बात थी तेरी मेरी,
जो रात थी तेरी मेरी,
जो बस अधूरी रह गई,
कि थी जरूरी, रह गई
घरौंद ख्वाब का जो था
महज अजाब का जो था,
कि होना जब फना ही था,
घरौंद क्यों बना ही था?
जो ख्वाब बुन रहे थे हम
जो साथ चुन रहे थे हम
वो ख्वाब एक जाल था?
वो साथ बस खयाल था?
जो जाल था, वही सही,
खयाल था, वही सही,
मुझे उन्हीं में चूर रख,
हकीकतों को दूर रख,
इधर निगाह फिर से कर!
मुझे तबाह फिर से कर!
जो सच न बन सका वही-
मैं ख्वाब हूं, मैं सच नहीं,
तू ख्वाब है , तू सच नहीं.
- ©अंशुमान मिश्र
बेहतरीन नज़्म 💐💐
जवाब देंहटाएंकमाल की नज़्म❤️✨
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत नज़्म बेटा
जवाब देंहटाएंवाह्हहह क्या कहने!!!! लाजवाब नज़्म 💐
जवाब देंहटाएंबेहद खूबसूरत नज्म भाई ✨❤️
जवाब देंहटाएंबेहद खूबसूरत नज़्म अंशुमान💐
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
जवाब देंहटाएंबेहतरीन नज्म
जवाब देंहटाएंबहुत ही खूबसूरत भैया जी❤️🥀
जवाब देंहटाएंबहुत ही बेहतरीन नज़्म 🙏🍃
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर भाई👌
जवाब देंहटाएंबेहतरीन नज़्म