मैं, चाँद और रात © रेखा खन्ना

 कुछ सफ़र अकेले ही करने होते हैं

कुछ रास्ते अकेले मुसाफ़िर का इंतज़ार करते हैं

चाँद भी मेरी तरह तन्हा और अकेला है

वो रात भर आसमां में फिरता है और मैं ख्यालों के सफ़र पर अक्सर अकेले निकलती हूँ

हमारी राहें अक्सर एक दूसरे से टकराती हैं और नज़रों के मिलते ही दोनों मुस्कुरा एक ही बात कहते हैं कि आज भी संग कोई नहीं है।


पता नहीं क्या भाता है हम दोनों को

रात का अंधेरा यां फिर अकेलापन यां फिर तन्हा चलते हुए हर रात किसी मोड़ पर एक दूसरे से टकराना और उस मुस्कराहट को दो घड़ी के लिए जी लेना जो एक दूसरे को देख कर हमारे होंठों पर आती है।


थका हुआ मन अक्सर पैरों को भी थका देता है और ना चाहते हुए भी मन की चंचलता कहीं खो जाती है

वो चंचलता जो और भी शरारती होकर खिलखिलाना चाहती है घड़ी दो घड़ी 

पर तन्हा मन सिर्फ रात के अंँधेरों का इंतज़ार नहीं करता है एक अनजान सफ़र पर निकलने के लिए

वो तो भरी महफिल में भी तन्हाई को ढूँढ ही लेता है।


चाँद, मैं और हमारा अनजान राहों का सफ़र कुछ नहीं माँगता अब 

शायद आदत की बात है अब 

देखो ना लाखों तारों और बादलों के संग रह कर भी चाँद का कोई नहीं

और मैं, मेरे पास अब कुछ कहने को कोई सवाल जवाब नहीं

शायद सुकून इसी में है कि भटका जाए यहाँ वहाँ खुद को ढूँढते हुए

शायद कभी किसी मोड़ पर मैं और चाँद अपनी खो गई चँचल जिंदगी से रू-ब-रू हो जाएँ कुछ पलों के लिए।


©दिल के एहसास। रेखा खन्ना

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