कहानी-गिरवी कविताएं ©संजीव शुक्ला

   शहर का कबाड़ी बाज़ार....स्थानीय लोग इसे गुरन्दी बाज़ार के नाम से जानते हैँ, पूरे शहर में गुरन्दी बाजार प्रसिद्ध है इसका नाम बच्चा- बच्चा जानता है l जगह जगह गंदगी,  पुराने बेकार सामान के बिखरे ढेर, कहीं लोहे के जंग लगे गले- अधगले पुराने घरेलू सामान, मशीनों के पुर्जे, नट वोल्ट के ढेर, कहीं लकड़ी का कबाड़ का ढेर, कहीं कांच का सामान तो कहीं प्लास्टिक, कहीं पुरानी क़िताबों की रद्दी के ढेर,  कुल मिलाकर पूरे बाज़ार का लगभग यही दृश्य होता है, लोग यहाँ आकर घर का बेकार सामान कबाड़ियों को बेचकर बदले में बिना हुज़्ज़त किए जो भी पैसा कबाड़ी दे - दे खुशी ख़ुशी  लेकर घर चले जाते हैँ  l लोग कहते हैँ गुरन्दी बाज़ार का यह केवल ऊपर का आवरण है, वास्तव में यह उठाईगीरों की रोजी रोटी का अड्डा है.. शहर भर के चोर उचक्कों का इस बाज़ार से गहरा संबंध है l गुरन्दी में लोगों की जरूरत की हर चीज सामान्य से कम कीमत में मिल जाती है, बस ज़रा खोजना पड़ती है l वैसे तो हमेशा ही गुरन्दी बाजार में ग्राहकों, और कबाड़ी वाले हॉकर्स की भीड़ होती है, लेकिन रविवार का दिन गुरन्दी बाजार में विशेष होता है, रविवार के दिन बाजार में ग्राहकों की भीड़ सामान्य से ज्यादा बढ़ जाती है l दूर दूर से ग्राहक अपने काम की चीजें यहाँ खोजने आते हैँ, और इन्ही में से एक हैँ साहित्य प्रेमी मधुकर जी,जो गुरन्दी बाज़ार में पुरानी किताबों की खोज में हर रविवार आते हैँ, इन्हे कभी कभी दुर्लभ देशी विदेशी साहित्य गुरन्दी बाज़ार में रद्दी के भाव मिल जाता है l मधुकर जी का वैसे तो अपना अच्छा ख़ासा व्यवसाय है, किन्तु इनका साहित्य प्रेम इन्हे गुरन्दी बाज़ार तक खींच लाता है, प्रत्येक रविवार नियमित रूप से गुरन्दी आते हैँ, घंटो पुरानी पुस्तकों के ढेर उलट पलट के देखते रहते हैँ, और कभी कभी कुछ दुर्लभ किताबें चुनकर कबाड़ी से खरीद ले जाते हैँ,  तो कभी कभी काफी मेहनत के बाद भी ज़ब कोई अच्छी किताब नहीँ मिल पाती तो मायूस होकर खाली हाथ  घर लौट जाते हैँ l सालों से यह नियम चला आ रहा है, और मधुकर जी ने पुरानी क़िताबों को इकट्ठा कर देशी विदेशी दुर्लभ किताबों का एक विशाल पुस्तकालय बना रखा है, जो प्रति रविवार और अधिक विशाल होता जा रहा है l मधुकर जी को बाजार का लगभग हर रद्दी बेचने वाला दुकानदार अच्छे से पहचानता है l 

     आज भी रविवार का दिन है, गुरन्दी बाजार में सुबह से ही चहल पहल बढ़ गई है, मधुकर जी सुबह सुबह ही बाज़ार पहुँच चुके हैँ,मतीन कबाड़ी वाले ने जैसे ही मधुकर जी को करीब आते देखा, तो उसके चेहरे पर  परिचय की मुस्कान आ गई l

सलाम चाचा ! कैसे हैँ ? 

बस बेटा ठीक हूँ, तुम कैसे हो, धंधा पानी कैसा है? 

अरे कहाँ चाचा,एक तो धंधा आजकल बहुत मंदा है, ऊपर से पुलिस की आए दिन की झिकझिक...अब अब्बू के ज़माने का रोजगार है, नस्लों से यही कारोबार कर रहे हैँ, तो बस ऊपर वाले के फ़ज़ल से किसी तरह निभा रहे हैँ l मतीन जैसे एक दम से फट सा पड़ा था,और सारी शिकायतों का पिटारा ही मधुकर जी के सामने खोल के रख दिया था l मधुकर जी, हौले से मुस्कुराते हुए, मतीन की बातों की सहमति की मुद्रा में बस सर हिलाते हुए खडे थे.. 

अचानक मतीन को शायद तहज़ीब की याद आई.. 

मुआफ़ी चाचा...अपनी शिकायतों की दास्तान के चक्कर में मैंने आपको बैठने भी नही कहा..पान मसाला से रचे लाल पीले दाँत दिखाकर... मतीन जोर जोर से हँस पड़ा... 

तशरीफ़ रखिये l एक पुराने लोहे को वेल्डिंग कर के बनाया हुआ स्टूल जैसा कुछ मतीन ने मधुकर जी की और सरकाया l 

मधुकर जी काँधे पे टँगा हुआ झोला सामने से पकड़ कर इधर उधर किताबों के ढेरों पर नज़र ड़ालते हुए मुस्कुराते हुए स्टूल पर बैठ गए l 

  मतीन ग्राहकों के साथ व्यस्त हो गया और मधुकर जी अपना स्टूल सरककर  रद्दी के ढेरों के साथ l 

      अचानक किताबों के एक ढेर में नीचे दबी मोटी ज़िल्द की एक मोटी सी किताब की एक झलक देख मधुकर जी के मन में आशा की किरन सी चमकी, जल्दी जल्दी दूसरी किताबों को हटाकर वह पीली सी जर्जर जिल्द की किताब मधुकर जी ने संभालकर ढेर से बाहर निकाली, बहुत सावधानी के बाद भी किताब की ज़िल्द किताब से अलग हो कर ढेर में गिर गई, मधुकर जी ने किताब हाथ में लेकर आँखों के नज़दीक कर चश्मा सुधारकर.. जैसे ही किताब का पहला पन्ना पलटा.. उनकी आँखों में चमक आ गई, वो किसी ब्च्चे के जैसे उछल पड़े....किताब सुप्रसिद्ध रूसी लेखक बोरिस पोलवॉई का लिखा एक सुप्रसिद्ध उपन्यास द रियल मैन  'असली इंसान' थी. 

मधुकर जी ख़ुशी से झूम उठे, जैसे कोई खज़ाना उनके हाथ लग गया हो, एक बार मतीन को आवाज़ लगाकर उससे बताना चाहा कि उन्हें क्या कीमती चीज मिल गई है, लेकिन अगले ही पल उन्हें ध्यान आया कि मतीन के लिए कोई भी किताब एक रद्दी का ढेर है, जिसमे वह केवल 2 रूपये 5 रूपये के  फायदे  के अलावा कुछ नही देखता l यह सोचकर चुप हो गए और चुप चाप किताब के पन्ने पलटने लगे किताब ज़र्ज़र स्थिति में थी लेकिन उसे ठीक किया जा सकता है, यही सारे विचार मधुकर जी के मन में चल रहे थे इस वक़्त l

अचानक मधुकर जी की नज़र दुकान के बाहर की तरफ ग्राहकों की भीड़ से अलग एक कोने में खडे एक नवयुवक पर पड़ी, युवक पहली नज़र में कबाड़ बीनने वाले दूसरे लड़कों जैसा लगा l मैले कुचैले कपड़े बेतरतीब बिखरे बाल, चेहरे पर परेशानी के चिन्ह, पपराये होंठ.. ऊहापोह की स्थिति में वह युवक हाथ में पकड़ी हुई बोरी से एक डायरी निकालता कुछ देर पन्ने पलटता और फिर बोरी में वापस रख देता,  चेहरे पर अनिश्चय के भाव स्पष्ट दिख रहे थे, रद्दी के दूसरे ढेर पलटते हुए न जाने क्यों मधुकर जी की दृष्टि बार बार उस युवक की और चली जाती, युवक काफी देर से वहाँ खड़ा हुआ था l और फिर मधुकर जी उठकर उस युवक के पास आ गए, गौर से युवक को देखा, युवक एक पुरानी  डायरी के पन्ने पलटने में व्यस्त था, उसकी आँखों में पीड़ा मिश्रित दुविधा की छाया स्पष्ट दिख रही थी l  मधुकर जी की  अनुभवी आँखों ने देखते ही समझ लिया कि यह युवक दूसरे कबाड़ बीनने वाले लड़कों से कुछ अलग है l  धीरे से करीब आ कर मधुकर जी ने युवक के काँधे पर अपना हाथ रखा, उनकी नज़रें युवक के हाथ में पकड़ी लाल रंग की पुरानी सी डायरी पर थी... 

इस अप्रत्याशित बुजुर्ग को अपने एकदम पास खड़ा देख युवक एकदम से चौंक गया... 

क्या बात है बेटा कुछ परेशानी है..?  

बडे स्नेह से मधुकर जी ने पूछा.. 

जी नहीँ.... जी नहीं... 

युवक हड़बड़ाकर डायरी बोरी में वापस रखते हुए बोल पड़ा.. 

युवक के स्वर में तहज़ीब थी जो साधारण कबाड़ बीनने वाले बच्चों के लहज़े में नहीँ होती.. मधुकर जी इस बात का अनुभव कर चुके थे l

मै काफी देर से देख रहा हूँ, तुम कुछ परेशान से लग रहे हो.. इस डायरी में क्या है... रद्दी बेचने आए हो..? 

बोरी पर नज़र गड़ाए.. मधुकर जी ने एक साथ कई सवाल युवक से पूछ लिए... 

जी रद्दी बेचने ही आया था... लेकिन... 

युवक अटक सा गया... 

लेकिन क्या..??? 

जी कुछ नहीँ.. 

युवक सिर झुकाये ख़ामोशी से खड़ा रहा l

मधुकर जी ने युवक को गहरी निगाहों से देखा, साधारण सा युवक जिसके कपड़ों पर धूल गंदगी जमी हुई थी, बाल उलझ चुके थे, जैसे महीनों से न नहाया हो, सूखे होठों पर पपरी जमी थी, भूख परेशानी उसके चेहरे पर स्पष्ट दिख रही थी, लेकिन फिर भी न जाने क्यों मधुकर जी को युवक की आँखों में विद्वता की  क्षीण चमक और चेहरे पर मासूमियत और सच्चाई दिखाई दे रही थी l

मै यहीँ इसी शहर में रहता हूँ, मुझे क़िताबों में रुचि है, और मै  यहाँ पुरानी क़िताबों की खोज में आता रहता हूँ l तुम चाहो तो मुझे अपनी लाल डायरी दिखा सकते हो, शायद मेरे काम की हो, मधुकर जी बोरी की और इशारा करते हुए बोले l 

युवक कुछ क्षण सकुचाया हुआ चुप खड़ा रहा.. 

फिर एक दम से धीमे स्वर में  बुदबुदा उठा नहीँ.. नहीँ.. मुझे नहीं बेचनी मेरी कविताएं..... 

कविताएं....???? 

मधुकर जी आश्चर्य चकित पूछ बैठे.. 

अब चौंकने की बारी मधुकर जी की थी.. 

युवक बोरी उठाकर वापस लौटने लगा.. 

मधुकर जी ने आवाज़ दी.. बेटा सुनो.. 

युवक प्रश्नवाचक चिन्ह आँखों में लिए रुक गया l


यह बात पता चलते ही कि डायरी में युवक की कविताएं हैँ मधुकर जी के साहित्य प्रेमी हृदय में जल्दी से जल्दी डायरी को पढ़ने की, और युवक के बारे में जानने की गहरी उत्सुकता जाग उठी थी, मधुकर जी का मन उस लाल डायरी को जल्द से जल्द पढ़ने के लिए छटपटा रहा था l 

मधुकर जी युवक के करीब जा कर बोले... 

बेटा..क्या  हम लोग बैठ कर आराम से बात कर सकते हैँ? 

आओ वहाँ चलकर बैठते हैँ.. मधुकर जी ने पास ही एक छोटे से होटल की और इशारा करते हुए विनम्र स्वर में कहा.. 

  थोड़ी सी आनाकानी के बाद युवक, अपनी बोरी पीठ पर उठाकर मधुकर जी के साथ चल पड़ा l

कुछ क्षणों बाद होटल के कोने की टेबल पर युवक मधुकर जी के साथ था l मधुकर जी की चश्मे से झांकती दृष्टि युवक पर थी, और युवक अभी भी सकुचाता हुआ नीची दृष्टि किए मधुकर जी के सामने बैठा था l

मधुकर जी ने युवक के लिए समोसे और खुद के लिए चाय बुला ली.. 

हाँ बेटा अब बताओ क्या बात है.. मै तुम्हारे और तुम्हारी लाल डायरी के बारे में सबकुछ जानना चाहता हूँ l मधुकर जी के सौम्य व्यक्तित्व पर हल्की सी मुस्कान थी, युवक के चेहरे के भाव अब  कुछ कुछ सामान्य हो चले थे  l 

 तभी होटल वाला लड़का समोसे की प्लेट, और चाय का गिलास  टेबल पर रख गया l 

युवक की दृष्टि समोसे की प्लेट से चिपकी हुई थी l

खाओ... मधुकर जी प्यार से बोले l

और युवक सब कुछ भूलकर समोसे की प्लेट पर टूट पड़ा.. कुछ मिनिट में प्लेट खाली थी.. 

मधुकर जी ने मुस्कुराकर होटल वाले लडके को एक और प्लेट लाने का इशारा कर दिया l

मधुकर जी को पहले ही अनुमान हो गया था, युवक कई दिनों से भूखा है l

युवक ख़ाता रहा और मधुकर जी मुस्कुराते हुए चुपचाप युवक को देखते रहे l और फिर 3री प्लेट भी साफ करने के बाद युवक को वस्तुस्थिति का आभास हुआ, वह संकोच से मधुकर जी की और सीधी  दृष्टि डाल कर हल्की सी मुस्कुराहट के साथ बोला.. 

बहुत धन्यवाद सर ! मैने पिछले 3 दिनों से कुछ भी नहीँ खाया था l 

और कुछ मँगवाऊँ..?? 

मधुकर जी ने पूछा.. 

जी चाय मै भी पियूँगा.. धीमे से मुस्कुराकर युवक ने कहा..  मधुकर जी भी मुस्कुरा उठे l

   दरअसल इस  लाल डायरी में मेरी लिखी हुई कुछ कविताएं हैँ सर l झुक कर बोरी से डायरी निकालते हुए युवक कह रहा था, और मधुकर जी युवक के हाथ में लाल डायरी को देख राहत का अनुभव कर  रहे थे l

  बेटा यदि तुम्हे आपत्ति न हो तो क्या मै तुम्हारी यह डायरी देख सकता हूँ..? 

आपत्ति... एक व्यंगात्मक कड़वी  मुस्कान युवक के होठों पर क्षण भर आई.. और उसने डायरी चुपचाप मधुकर जी की और बढ़ा दी... 



मधुकर जी डायरी पढ़ने की जल्दबाजी में.. शायद युवक के चेहरे पर क्षण भर को आई व्यंग भरी मुस्कुराहट नहीं देख सके, और जल्दी जल्दी डायरी का आवरण पृष्ठ खोला, पहले ही पृष्ठ पर डायरी पर सबसे ऊपर के कोने में एक स्त्री पुरुष युगल की फोटो चिपकी हुई थी l सबसे नीचे कोई नाम लिखा हुआ था 

अनिरुद्ध शर्मा, मधुकर जी ने अनुमान लगाया शायद उस युवक का नाम होगा, फोटो शायद उसके माता पिता की होंगी l

    और फिर मधुकर जी ने डायरी में लिखी पहली कविता पर नज़र डाली.... 

और एक के बाद एक कविताएं पढ़ते चले गए... 

अनुपम शैली सटीक मात्रा भार, शिल्प, भाषा सहित  भावों का अथाह सागर..प्रत्येक कविता एक से बढ़कर एक कुल मिलाकर करीब 20 कविताएं थीं, ऐसा लग रहा था जैसे कवि ने अपना हृदय निकाल कर शब्दों के टुकड़ों में बाँट कर पन्नो पर बिखरा दिया हो l

  साहित्य का प्रारम्भिक ज्ञान मधुकर जी को भली भांति था, सभी विधाओं में उनकी रुचि थी, स्वयं वह थोड़ी बहुत कविताएं लिख लेते थे, कभी कभी स्थानीय कवि सम्मेलनों में उन्हें आमंत्रित किया जाता था, कुछ पत्र पत्रिकाओं में उनकी कुछ कविताएं कभी कभी प्रकाशित होती रहती थीं, एक निश्चित वर्ग में उनकी  एक कवि के रूप में पहचान थी किन्तु.... 

किन्तु जो कविताएं अभी वो पढ़ रहे थे.. वह अद्भुत   थी l पढ़ते पढ़ते  एक बार नज़र उठाकर उन्होंने अनिरुद्ध की तरफ अविश्वास की दृष्टि से देखा.... वह भावहीन दृष्टि से उन्ही की ओर देख रहा था l मधुकर जी आगे की कविताएं पढ़ने लगे l ओर बहुत जल्दी पूरी डायरी पढ़ ली l 

अनिरुद्ध तुम्हारा नाम है? 

ये सारी कविताएं तुमने लिखी हैँ?? 

मधुकर जी ने एक साँस में पूछा.. 

जी हाँ सर..  मै अनिरुद्ध शर्मा हूँ l ये करीब साल भर पहले तक की लिखी हुई मेरी कुछ कविताएं हैँ l

अद्भुत.... अद्भुत... मधुकर जी बुदबुदा उठे, वह  अभी भी विश्वास नहीँ कर पा रहे थे कि कोई नवयुवक इस प्रकार विलक्षण प्रतिभाशाली हो सकता है l 

अभी कुछ मेरे सामने बैठ कर लिख सकते हो?? 

कुछ भी 2 पंक्ति... मधुकर जी ने आग्रह पूर्ण स्वर में पूछा.. 

अनिरुद्ध हल्के से मुस्कुरा उठा.. ओर तपाक से ख़ालिश शायराना अंदाज़ में मुस्कुराते हुए बोल उठा ..... 

कोई कैसे यकीं करे हम पे.. 

ज़ब हमें खुद पे ऐतबार नहीं l

 वाह्ह्ह... वाह्ह्हह्ह्ह्ह.. अब मधुकर जी को पूरा यकीन हो चुका था कि अनिरुद्ध एक मँजा हुआ शायर है, जिसकी हिंदी के अलावा उर्दू भाषा पर भी अच्छी पकड़ है l 

अनिरुद्ध अब मुझे अपने बारे में सबकुछ बताओ... 

क्या बताऊँ सर.. आपको पसंद नहीँ आएगी मेरी कहानी.. इसमें केवल दुख निराशा परेशानी संघर्ष के अलावा कुछ नहीँ मिलेगा l

अनिरुद्ध के स्वर से एक आह सी निकली.. जिसका स्पष्ट अनुभव मधुकर जी के संवेदन शील मन को हुआ l

आप पहले व्यक्ति हैँ जिसने इतने स्नेह से मुझसे बात की , मेरी परवाह की,  बदनसीबी की गर्द में दबे मेरे वज़ूद की क्षण भर के लिए मुझे खुद को याद दिला दी, नहीं तो मै सबकुछ भूल चुका था, मै कौन हूँ, कहाँ हूँ, मेरे जीवन का क्या उद्देश्य है... सबकुछ... 

मै आपको मेरे बारे में सबकुछ बताता हूँ l

अनिरुद्ध की आँखों में पलभर अनेक परछाइयाँ आकर तैर गईं l एक लम्बी साँस भर कर उसने बोलना शुरू किया.... 

                    अनिरुद्ध ने बोलना शुरू किया.. सर ! मैं यहाँ का नहीं हूँ, मै यू पी के एक छोटे से कस्बे में अपने माता पिता के साथ रहता था, मेरे पिता एक सीमेंट फैक्ट्री में केमिस्ट थे, माँ सीधी  सादी हाउस वाइफ...मेरी और पापा की हर छोटी से छोटी ख़ुशी का ध्यान रखने के अलावा माँ के जीवन का कोई उद्देश्य नहीँ था.. .मैं अपने माता पिता की अकेली संतान था,बहुत खुशहाल परिवार था हमारा.. मेरे माँ पापा मुझे बहुत प्यार करते थे, अपनी सीमित आय में मेरी हर सुख़ सुविधा का ध्यान रखते थे, मैं इंजीनियरिंग का विद्यार्थी था, पढ़ने में काफी अच्छा था.. पढ़ाई के अलावा मुझे बचपन से साहित्य से बहुत लगाव था. मैं कविताएं लिखता था.. मेरी कोई भी नई  कविता ज़ब मैं पापा को सुनाता तो पापा की आँखों में प्रशंसा और गर्व देख कर मैं खुद को दुनियाँ का सबसे बड़ा कवि समझता था l पापा मेरी रुचि देख मेरे पढ़ने के लिए  लिए ढूँढ ढूँढ कर किताबें लाते थे l मेरी एक दो कविताएं ज़ब एक पत्रिका में छपीं तो पापा के पाँव जमीन पर नहीं पड़ रहे थे कोई भी घर आता तो पापा सबसे पहले वही पत्रिका उसे दिखाते, और मेरी तारीफ़ में जमीन आसमान एक कर देते, ये सब देखकर माँ चुपचाप मुस्कुराती रहती l

हम सब बहुत खुश थे..

            फिर अचानक हमारे हँसते खेलते परिवार को न जाने किसकी नज़र लग गई, एक दिन फैक्ट्री से फोन आया कि पापा की फैक्ट्री में कोई दुर्घटना हुई है, पापा को हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया है l मैं और माँ बदहवास जल्दी जल्दी हॉस्पिटल पहुंचे, वहाँ जा कर आई सी यू .वार्ड की विंडो से देखा पापा के चेहरे पर पट्टियाँ बँधी हुई हैँ, पूरा ज़िस्म सफ़ेद चादर से ढका हुआ है, ऑक्सीजन लगी है और पापा बेसुध हैँ, हमें अंदर नहीँ जाने दिया गया l मेरी माँ का बुरा हाल था, मैं माँ को दिलासा देने की कोशिश करता रहा l   2 दिन  बीत  गए थे, तब तक हमारे कुछ नज़दीकी रिश्तेदार भी पहुँच चुके थे.. 

......और फिर तीसरे दिन एक डॉक्टर ने आकर बताया.. 

पापा नहीं रहे l माँ अचेत हो गईं, उन्हें उसी हॉस्पिटल में भर्ती करवा कर मैं पापा की बॉडी लेकर रिश्तेदारों के साथ गाँव चला गया l अंतिम संस्कार होने तक माँ को होश नहीँ आया था l गाँव में हमारा पुश्तैनी घर है वहाँ मेरे चाचा अपने परिवार के साथ रहते हैँ, कुछ खेती की ज़मीन भी है,पापा की व्यस्तता के कारण  हम लोग बहुत कम गाँव जा पाते थे, चाचा ही घर और खेती देखते थे l

आखिर 3 दिन बाद माँ को होश आया और कुछ हालत ठीक होते ही मैं उन्हें ले के गाँव आ गया l सारे कार्यक्रम निपटाते हुए महीना निकल गया l माँ ने बिस्तर पकड़ लिया था, किसी से कुछ नहीं बोलती थीं, न किसी की बात का जवाब देती थीं, मुझसे भी नहीँ.. बस खाली निगाहों से कभी कभी मेरी और  देखती रहती थीं l

हमारी खुशहाल ज़िन्दगी में अचानक वज़्र टूट पड़ा था l कुछ दिनों बाद  फैक्ट्री का क्वार्टर खाली करने का आदेश और पापा के सेटलमेंट का चेक ले के फैक्ट्री से कुछ अधिकारी आए.. चेक और सांत्वना के कुछ शब्द और हफ्ते भर में क्वार्टर खाली करने का निर्देश दे के चले गए l 

मैं चाचा के साथ जाकर सारा सामान एक छोटे ट्रक में लेकर गाँव आ गया l

लगभग 6 महीने बीत गए.. मेरी पढ़ाई छूट गई थी.. माँ की हालत सुधर नहीँ रही थी, मैं उन्हें लेकर शहर के बडे अस्पतालों के चककर काटता रहा, माँ के इलाज में पापा को कम्पनसेशन और फण्ड में मिले सारे पैसे कब ख़त्म हो गए पता भी नहीँ चला l 

इस बीच चाचा चाची का व्यवहार भी हमारे प्रति बदलने लगा था l और दिन प्रतिदिन उनका व्यवहार बदतर होता जा रहा था l मैं माँ के ठीक होने की उम्मीद में सबकुछ चुपचाप सहता रहा l

आखिर एक दिन माँ भी मुझे दुनियाँ में अकेला  छोड़कर चली गई l 

  माँ के अंतिम संस्कार के कार्यक्रम जैसे तैसे निपटे.. 

उसके तुरंत बाद चाचा ने दो टूक शब्दों में कह दिया, कि मुझे अपना ठिकाना कहीं और देखना होगा l अब और वो हमें घर में नहीँ रहने दे सकते l 

मैंने दबी जुबान से कहना चाहा कि हमारी जमीन तो होंगी, घर में हमारा भी तो हिस्सा होगा l 

सुनते ही चाचा चाची दोनों बिफर गए, तुम्हे पता नहीँ है, 20 साल पहले तुम्हारे दादा जी ने सारी प्रॉपर्टी मेरे नाम कर दी थी, तुम्हारे पापा का यहाँ कुछ भी नहीँ है l ज़ब दादा जी की डेथ हुई तो उनके अंतिम संस्कार का सारा खर्च हमने उठाया था, तुम्हारे पापा ने कुछ नहीँ किया था l मैं  उनकी कुटिल चाल भली भांति समझ गया था, दुखी मन से बोला, कुछ दिन इस घर के एक कमरे में रहने दीजिये, ज़ब तक कोई काम न मिल जाए l चाचा को शायद डर था कि मैं गाँव में रुका रहा तो कहीं कोई कानूनी कार्यवाही न करने लगूँ,  वो जल्दी से जल्दी मुझे गाँव से भगाना चाहते थे l

उन्होंने कठोर, रूखे चेतावनी भरे शब्दों में मुझे घर से तुरंत चले जाने का आदेश सुना दिया था l

मधुकर जी की दृष्टि अनिरुद्ध के चेहरे पर टिकी थी, वह साँस रोक कर अनिरुद्ध की कहानी सुन रहे थे l


अनिरुद्ध एक क्षण रुका टेबल पर रखे पानी के गिलास से कुछ घूँट भरे, और आगे बोलना शुरू किया....

इसी तरह 2 दिन बीते.. चाची ने मुझे खाना देना बंद कर दिया था..और फिर एक दिन यह सोचकर कि शहर जा कर कोई काम ढूँढ लूँगा, फिर आगे की पढ़ाई पूरी कर कोई अच्छी सी नौकरी मिल ही जाएगी, यह सब सोचकर, चाचा के प्रति गुस्सा मन में लिए एक बैग में कुछ कपड़े, मेरी ये लाल डायरी कुछ किताबें और कुछ रजिस्टर जिसमे मेरे नोट्स थे लेकर चुपचाप गाँव से शहर के लिए निकल पड़ा l  

सच कहूँ तो गाँव से निकलते वक़्त मुझे शहर में आ के काम और रहने का ठिकाना खोजना बहुत आसान सा लग रहा था... मेरी इस नासमझी का अहसास मुझे इस शहर में आ के हुआ l 

मैं गाँव से बस पकड़ कर लखनऊ आ गया l थोड़े बहुत पैसे थे मेरे पास एक सस्ते होटल में कमरा ले के रुक गया  दिन भर बाजार में जा कर दुकानों ऑफिस में जा जा कर काम तलाशता रहा, लेकिन कहीं कोई काम नहीं मिला l पैसे ख़त्म हो चले थे.. आखिर एक दिन  होटल छोड़ना पड़ा. मैं अपना बैग लेकर सड़क पर चल पड़ा, दिन भर भटकता रहा रात हो गई, मैंने सोचा रेलवे स्टेशन पर चलकर वहीं रात बिताऊंगा l

स्टेशन पास ही था, धीरे धीरे चलकर स्टेशन पर आ कर एक कोने में खाली बेंच पर बैठ कर आते जाते आसपास के लोगों को बहुत देर तक देखता रहा l इतनी भीड़ थी मगर मेरा कोई नहीं l  मुझे पापा माँ की बहुत याद आ रही थी, और बार बार मेरी आँखें भर आती थीं l

बहुत सोचा कोई रास्ता नहीँ दिख रहा था l 

भूख जोर की लग रही थी, और मेरे पास एक पैसा नहीँ बचा था l और फिर अचानक मेरे दिमाग़ में विचार आया, क्यों न किसी अनजान शहर चला जाऊँ वहाँ कोई भी काम कर लूँगा, होटल में, किसी दुकान में या कुछ और जो भी मिल जाए, मेरा दिमाग़ उस वक़्त पेट भरने के किसी उपाय के अलावा कुछ भी नहीँ सोच पा रहा था l 

 यही सब कुछ सोच कर मैं प्लेटफार्म पर सामने ख़ड़ी 

एक ट्रेन में चढ़ गया, और खुद को भाग्य के हवाले छोड़ कर एक खाली सीट में जाकर बैठ गया l 

     पता नहीँ कब मुझे हल्की सी झपकी आ गई.. और ज़ब आँख खुली तो ट्रेन धड़ धड़ कर के दौड़ रही थी l 

अगले दिन सुबह सुबह  ट्रेन मुझे इस शहर में ला के छोड़ चुकी थी l मैं परेशान भूखा प्यासा अपना बैग उठाये, tc की नज़रों से बचता बचाता किसी तरह स्टेशन से बाहर आया l बाहर आ के स्टेशन पर पढ़कर इस शहर का नाम जाना l मैं जबलपुर आ चुका था l मैंने काफी सुना था जबलपुर शहर का नाम l

स्टेशन से बाहर आकर कुछ देर एक तरफ कोने में बैठ गया l पास ही कुछ भिखारी दिखे कुछ अपनी गठरी का सिरहाना बना कर लेटे, कुछ मुसाफिरों से भीख मांगते, कुछ दयालु मुसाफिर उनके हाथों में सिक्के रख देते, कोई महिला बचा हुआ खाना, ज्यादातर झिड़क कर आगे बढ़ जाते, मेने खुद की हालत पर नज़र डाली , मेरे बाल उलझ चुके थे कपड़े मैले कुचैले हो चुके थे मुझे उन सभी भिखारियों की हालत मुझसे बेहतर ही लगी l एक क्षण मेरे विचार में ये बात आई कि क्या मुझे भी यही सब करना पड़ेगा l 

और ये विचार आते ही मैं सिहर उठा l मैंने कुछ कविताएं कभी भिखारियों को केंद्र में रखकर लिखी थीं, आज मुझे अनुभव हो रहा था कि, किसी दुख का  मात्र अनुमान लगाने में, और स्वयं उस दुख के साथ जीने में बहुत फ़र्क होता है l

  एक दिन और 2 रात बीत चुकी थीं, मेरे पेट में पानी के अलावा कुछ भी नहीँ गया था lभूख असहनीय हो चली थी, मेरे दिमाग़ में बस यही 

सबसे बड़ा सवाल था कि कैसे भी मुझे कुछ रोटियाँ मिल जाएँ l और मैं यही सब सोचता हुआ मन में कोई निश्चय लिए होटल के पास ही एक छोटी सी होटल की तरफ बढ़ चला l 


तब तक मधुकर जी ने फिर से चाय मँगा ली थी... चाय का गिलास हाथ में पकड़ कर एक गहरा घूँट भर अनिरुद्ध ने कहानी आगे बढ़ाई... 

       अनिरुद्ध स्टेशन के करीब ही एक होटल पर पहुँचा,.. होटल क्या फुटपाथ पर शेड डाल कर कुछ टेबल कुर्सियां रख दी गईं थीं, एक हाथ ठेले पर खाना बनाने के बडे बर्तन, गैस भट्टी रख कर किचेन बना दिया गया था l एक प्लास्टिक के बडे से ड्रम में पीने का पानी और उसमे लोहे की चेन से बँधा स्टील का गिलास..  2 कम उम्र के बच्चे मैले कुचैले कपड़ों में ग्राहकों को सर्व कर  रहे थे, और एक मोटा सा आदमी हाथ में पकड़ी करछी भट्टी पर चढी बडी सी कढ़ाही पर चला रहा था, बीच बीच में लड़कों को भद्दी भद्दी गालियां  सुनाता जा रहा था, शायद वही होटल का मालिक था, अनुमान लगाता हुआ अनिरुद्ध उसी मोटे आदमी के पास जा कर खड़ा हो गया l  वहीं कुछ लोग सुबह सुबह नाश्ता कर रहे थे l

  मोटे आदमी ने अनिरुद्ध पर उड़ती सी दृष्टि डाली और फिर अपने काम में व्यस्त हो गया.. 

भैया. . अनिरुद्ध ने कमजोर स्वर  में धीरे से पुकारा.. 

मोटे ने ध्यान नहीं दिया.. 

भैया.. सुनिए... 

अनिरुद्ध इस बार कुछ तेज आवाज़ में बोला.. 

क्या है... 

मोटे ने अनिरुद्ध की तरफ घूम कर  घूरते हुए कठोर स्वर में पूछा.. 

भैया मुझे कुछ खाने को मिलेगा..अनिरुद्ध के स्वर में याचना  सिमट आई थी l 

छोटू..... देख... इसकी प्लेट लगा... 

लेकिन मेरे पास पैसे नहीँ हैँ.... करुण, निरीह स्वर.में गिड़गिड़ाया... . 

चल भाग यहाँ से..... लंगर खोल रखा है मैंने.... 

चले आते हैँ सुबह सुबह बोहनी खराब करने.... 

मोटा बिफर पड़ा.... 

भैया मेरी बात सुनो.. मैंने 2 दिन से कुछ नही खाया, आप मुझे कुछ खाने को दे दो, बदले में मैं आपका कोई भी काम करूंगा l

पता नही क्यों मोटा एक क्षण अनिरुद्ध को ऊपर से नीचे तक देखता रहा और फिर, उसी गुस्से के स्वर में बोला.... झूठे प्लेट साफ करेगा?? 

और अनिरुद्ध ने बिना एक पल की देरी किए हाँ में ऊपर नीचे 2-3 बार सर हिला दिया l 

   ठीक है.. देखता हूँ,बदमाशी की तो दोनों पाँव तोड़ के हाथ में दे दूँगा.. याद रखना l मोटा चेतावनी भरे स्वर में बोला, उसका व्यक्तित्व देख अनिरुद्ध समझ चुका था कि मोटा जैसा कह रहा है, वैसा कर भी सकता है, 

  जा पहले उस बास्केट की पूरी प्लेट चमका, फिर खाना मिलेगा l मोटे ने नाली के पास जूठी प्लेट्स से भरी प्लास्टिक की एक बडी सी बास्केट की तरफ इशारा किया l पास ही नगर निगम का नलका था, और वहीं एक बडी सी प्लेट में बर्तन धोने  का पावडर रखा हुआ था l

अनिरुद्ध चुपचाप चलकर बास्केट के पास आ गया l

कंधे से बैग उतार कर एक तरफ रखा, और प्लेट्स धोने में जुट गया l

प्लेटों का बड़ा ढेर था, लगभग घण्टे भर बाद अनिरुद्ध ने सारी प्लेट्स धो के बास्केट में वापस रख दी l हाथ धो कर अपना बैग उठा कर अनिरुद्ध वापस मोटे के पास आ गया, मोटे ने एक नज़र बास्केट पर डाली और फिर अनिरुद्ध को देखते हुए आवाज़ दी... छोटू इसकी प्लेट लगा दे l 

जा वहाँ बैठ जा....एक तरफ इशारा करते हुए अनिरुद्ध से मोटे ने कहा l 

और अनिरुद्ध वहाँ जा कर बैठ गया जहाँ मोटे ने इशारा किया था l इस वक़्त मोटा अनिरुद्ध को दुनियाँ का सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति लग रहा था l

कुछ देर में छोटू एक प्लेट में दाल, आलू की सब्जी और कुछ रोटियाँ लाकर दे गया, और अनिरुद्ध खाने पर टूट पड़ा, मोटा बीच बीच में अनिरुद्ध को खाते हुए देख लेता था, जैसे ही रोटियाँ ख़त्म हुई मोटे ने छोटू को इशारा किया और छोटू फिर से कुछ रोटियां और दाल ला के अनिरुद्ध की प्लेट में रख गया l

अनिरुद्ध को लगा शायद मोटा दिल का उतना बुरा नहीँ है, जितना बातों से लगा था l खैर अनिरुद्ध बिना साँस लिए  ख़ाता रहा.. उसकी जान में जैसे जान आ गई थी l

और कुछ दिन तक यही सिलसिला चलता रहा, अनिरुद्ध दिन भर मोटे की होटल में झूठे प्लेट साफ करता और रात को स्टेशन पर जा कर भिखारियों के बगल में कहीं लेट जाता, कभी झपकी आ जाती कभी पूरी रात ऐसे ही गुजर जाती,और..... 

एक सुबह ज़ब अनिरुद्ध की आँख खुली तो उसने देखा कि उसका बैग सिरहाने नहीँ है... 

इधर उधर नजर दौड़ाई तो थोड़ी दूर बैग पड़ा दिखा 

 जा के उठा के देखा तो बैग से उसके कपड़े, और बंद पड़ा मोबाईल गायब थे, किताबें और डायरी शायद चोर बेकार समझ कर छोड़ गए थे l

अनिरुद्ध इतने कष्ट पहले ही झेल चुका था कि इस घटना का उसपर कोई ख़ास असर नही हुआ, वैसे भी मोबाईल महीनो से बिगड़ा हुआ था, और कपड़ों की जरूरत ही नहीं थी दोनों चीजें उस वक़्त अनिरुद्ध के लिए बेकार थीं, हाँ लाल डायरी को बैग में देख अनिरुद्ध को राहत जरूर महसूस हुई थी l

     कुछ दिन ऐसे ही बीत गए, और कुछ भी हो मोटा अनिरुद्ध को दोनों वक़्त का खाना जरूर भरपेट खिलाता था l 

      कुछ दिन ही बीते थे कि.... एक दिन नगर निगम की गाड़ियाँ आईं और आसपास के दूसरे सभी ठेलों के साथ मोटे का ठेला उठा कर ले गईं l

मोटा चीखता चिल्लाता रहा, किसी ने नहीं सुनी, और अनिरुद्ध की तो जैसे पाँव तले से जमीन ही चली गई थी, वह वापस वहीं पहुँच गया था जहाँ से चला था l

फिर वही भूख, परेशानी का सवाल मुँह बाए सामने खड़ा था l अनिरुद्ध दो दिन तक बिना कुछ खाये पिए स्टेशन के बाहर बैठा रहा, और फिर ज़ब भूख असहनीय हो गई तो आज मजबूर होकर अपने नोट्स और डायरी लेकर बाजार में आ गया l एक दिन छोटू ने उसे बात बात में बताया था कि वह मोटे की होटल में आने से पहले रास्ते पर पड़ी रद्दी बीनकर गुरन्दी में बेचता था जिससे कुछ रूपये मिल जाते थे l 

आँखो में दयनीय भाव भर मधुकर जी की और देखता हुआ अनिरुद्ध बोला.... यही सब कुछ सोच कर मैं आज यहाँ इस बाजार में आया था सर... कि ये किताबें रद्दी में बेचकर शायद कुछ खाने का इंतज़ाम हो सके l लेकिन मैं मेरी कविताएं बेचकर पेट पालने की हिम्मत इकट्ठी नहीं कर सका....और फिर आप मिल गए बस यही मेरी दुर्दशा की अभी तक की कहानी है... अनिरुद्ध ने चेहरा उठा कर मधुकर जी की और देखा, जिनके चेहरे पर अनिरुद्ध की कहानी सुनकर अनेक भाव आए गए थे, समाज के प्रति गुस्सा और अनिरुद्ध के प्रति सहानुभूति और करुणा के भाव... 

पूरी कहानी सुनकर अब मधुकर जी के चेहरे पर एक निश्चय का भाव था l जैसे वह किसी निर्णय पर पहुँच चुके थे l


अनिरुद्ध लगभग घण्टे भर से लगातार बोलता रहा था.. और अब एक दम शांत हो चुका था.... 

अच्छा ये बताओ... 

अगर तुम्हे तुम्हारी मन पसंद  जिंदगी जीने का मौका मिले तो सबसे पहले क्या करना चाहोगे...? 

मधुकर जी ने रहस्यपूर्ण शब्दों में पूछा.... 

सर, सबसे पहले तो अपनी पसंद का ढेर सारा खाना खाना चाहूँगा.....

और.......???? 

और कमसे कम दो रातें लगातार अच्छे बिस्तर पर सोना चाहूँगा.. 

मधुकर जी का अंतर, अनिरुद्ध का मासूमियत  भरा जवाब.. और उस जवाब के पीछे छुपी वज़ह का अनुमान लगाकर एक बार फिर आहत हो गया.. प्रकट में मुस्कुराते हुए वह बोले.. 

तो ठीक है चलो.... 

कहाँ??  अनिरुद्ध ने अचकचाते हुए पूछा... 

मधुकर जी कुछ नही बोले बस अपना झोला काँधे पर टाँग कर  कुर्सी से खडे हो गए..और होटल के काउंटर की तरफ बढ़ गए.... .यह देख अनिरुद्ध भी अनिश्चय की स्थिति में.. अपने स्थान से उठ कर खड़ा हो गया l अब उसने बोरी से अपना नीले रंग का बैग बाहर निकाल कर काँधे पर टांग लिया था.. बोरी उसने वहीं होटल की डस्टबिन में डाल दी थी.. 

पेमेंट कर मधुकर जी होटल के बाहर आये.. अनिरुद्ध उनके पीछे था... 

कुछ दूर चल कर मधुकर जी ने सिर उठाकर.. देखा आँखों पर चढ़ा चश्मा सुधारा और सामने एक लॉज की सीढ़ियां चढ़ने लगे l अनिरुद्ध चुपचाप उनके पीछे  था l

लॉज के कॉउंटर पर पहुँच कर मधुकर जी ने अपना परिचय पत्र दिखा कर अनिरुद्ध के नाम एक कमरा बुक किया, 3 दिन का एडवांस जमा किया और,,कमरे की चावी लेकर पहले फ्लोर पर सीढ़ियां चढ़ कर आ गए.. ताला खोला, और कमरे के अंदर जा कर वहाँ रखी कुर्सी पर बैठ गए l अनिरुद्ध ऊहापोह की स्थिति में अंदर आकर कमरे का मुआयना करता हुआ चुप चाप खड़ा था l

     बैठो.. मधुकर जी ने स्नेह से कहा... 

अनिरुद्ध की समझ में कुछ कुछ तो आ रहा था कि यह कमरा मधुकर जी ने उसी के लिए बुक किया है, लेकिन पूरी बात उसकी समझ में नहीं आ रही थी... कोई किसी ग़ैर के लिए यह सब क्यों करेगा... बहुत से प्रश्न अनिरुद्ध के दिमाग़ में घूम रहे थे.. लेकिन कहीं न कहीं उसे यह सब अच्छा भी लग रहा था l

मधुकर जी की दृष्टि अनिरुद्ध के चेहरे पर टिकी थी, वह उसके चेहरे पर आते जाते भावों को भली भांति पढ़ रहे थे... 

अब तुम दो दिन तीन दिन, जितने दिन तुम्हारा मन करे यहाँ बेफिक्र हो कर सो सकते हो..... और अपनी पसंद का खाना मन भर के खा सकते हो.... 

मुस्कुराते हुए मधुकर जी ने कहा.. 

      कोई किसी अजनबी के लिए कुछ भी यूँ ही नहीं करता, यही दुनियाँ का नियम है, मैं भी इस सबके बदले तुमसे कुछ मांगूंगा l अभी तुम आराम करो.. मैं दो दिन बाद तुमसे यहीँ आ के मिलूँगा l

मधुकर जी ने कुर्ते की जेब से कुछ रूपये निकाल कर सामने की टेबल पर रख दिये ... ये तुम्हारे काम आएंगे l बाकी बातें हम लोग बाद में करेंगे.. फिलहाल तुम आराम करो... कहते हुए मधुकर जी कमरे का दरवाजा खोल कर अनिरुद्ध को अनेक सवालों में घिरा छोड़ कमरे से बाहर निकल गए l 

अनिरुद्ध मुँह फाड़े उन्हें जाते देखता रहा.... ज़ब तक अनिरुद्ध की समझ में कुछ आता मधुकर जी जा चुके  थे l


अनिरुद्ध कुछ देर असमंजस की स्थिति में बिस्तर पर बैठा रहा, उसका गला सूख रहा था, टेबल पर पानी की बोतल रखी हुई थीं, गट गट कर के बोतल से पानी पिया और कमरे का दरवाजा बंद कर बिस्तर पर लेट गया, कुछ क्षण पहले जो घटित हुआ था सबकुछ उसे सपना सा लग रहा था, मधुकर जी किसी देवदूत की तरह अचानक उसके सामने प्रकट हुए थे, उनके मन में क्या है, आखिर उन्होंने यह क्यूँ बोला कि "तुम्हे भी इस सबके बदले मुझे कुछ देना होगा " मेरे पास ऐसा क्या है जो मैं उन्हें दे सकूँ, आखिर उनके मन में क्या है,,.... 

यही सब कुछ सोचता हुआ अनिरुद्ध कब गहरी नींद में सो गया उसे पता भी नहीँ चला l 

   ज़ब उसकी आँख खुली तो उसे लगा वह काफी देर तक सोता रहा है l कुछ देर उसे अपनी स्थिति का अनुमान करने में लगा l फिर वह कमरे का दरवाजा खोलकर बाहर आया.. पूरे लॉज में सन्नाटा छाया हुआ था, केवल कमरों से सांय सांय करते हुए पंखों की आवाजें आ रही थीं, अनिरुद्ध सीढ़ियां उतर कर लॉज के रिसेप्शन तक आ गया, मैनेजर काउंटर के पीछे दो कुर्सियों पर अधलेटा सा सो रहा था, काउंटर के ऊपर लगी घड़ी पर अनिरुद्ध की नज़र गई, रात के दो बज रहे थे l तब अनिरुद्ध को समझ में आया वह लगातार 12 घण्टे सोता रहा है, उसे भूख लग रही थी, लेकिन इस वक़्त कुछ भी नहीँ हो सकता था वह चुपचाप  कमरे में वापस आ गया l और बिस्तर पर लेट कर पूरे घटनाक्रम पर एक बार फिर से विचार करने लगा l 

   ये तो अनिरुद्ध की समझ में आ चुका था कि मधुकर जी साहित्य प्रेमी हैँ, और शायद उसकी कविताएं उसे पसंद आयीं हैँ, लेकिन बार बार यह प्रश्न खटक रहा था कि वह उससे क्या चाहते है? 

खैर.....इतने सारे बुरे अनुभव के  बाद मिला यह क्षणिक सुख़ पाकर उसकी थकी हुई आँखें फिर से बोझिल होती गईं, और वह फिर से सो गया l

  सुबह काफी दिन चढ़े अनिरुद्ध की नींद खुली, मुँह हाथ धोकर वापस आकर उसकी नज़र  टेबल पर मधुकर जी के छोड़े पैसों पर गई, उसने उन्हें उठा कर गिना 500 के 4 नोट थे, पैसे जेब में डाल के कमरे में ताला डाल अनिरुद्ध लॉज से बाहर निकल पड़ा l

करीब ही कुछ दूर चलकर एक हेयर सैलून था, वहाँ जाकर बाल कटवाए, शेव करवाई, और एक गारमेंट शॉप से कुछ कपड़े और एक जोड़ी चप्पल खरीदी, टूथ पेस्ट ब्रश, साबुन तेल जैसे छोटे मोटे जरूरी  सामान ले के वापस लॉज में लौटा.. बाथरूम में घुसकर उसने याद करने की कोशिश की.. आखिरी बार उसने कब अच्छे से दाँत ब्रश किए थे... कब ठीक तरह से नहाया था.... उसे याद नहीँ आया वह घंटो नहाता रहा.....बाहर आकर शॉर्ट्स और टी शर्ट पहनी बाल कंघी किए, थोड़ी देर आईने के सामने खड़ा रहा.. उसने पता नही कब से आइना नही देखा था.. मन में एक ख्याल आया... अच्छा ही हुआ जो उस बुरे वक़्त में मैंने मेरी शक़्ल नहीँ देखी.. और खुद के इस विचार पर उसे कुछ राहत महसूस हुई l

वह लंच के लिए नीचे उतर आया, लॉज के मैनेजर ने अनिरुद्ध के बदले हुलिए को घूर के देखा.. अनिरुद्ध उसे नज़र अंदाज़ करता हुआ.. बाहर निकल गया l

    अब ज़ब अनिरुद्ध  क्षणिक ही सही बुरी परिस्थितियों से उबर चुका था, तो उसकी चेतना वापस लौट चुकी थी... वापस लौट कर वह अपनी वर्तमान परिस्थिति और भविष्य पर विचार करने लगा, वह एक मेघावी क्षात्र था और इंजीनियरिंग का अंतिम सेमेस्टर बाकी रह गया था l उसकी फीस जमा करनी होंगी l 

रहने के लिए किराये का एक कमरा भी मिल जाए और खाने की व्यवस्था कुल मिलाकर कोई 10000/ महीने का काम मिल जाए तो  धीरे धीरे सब ठीक हो जायेगा l लेकिन वर्तमान परिस्थिति में यह उसे एक असम्भव सा काम  लग रहा था l 

    बार बार उसकी सोच वापस मधुकर जी पर लौट आती, उनका व्यक्तित्व अनिरुद्ध के लिए किसी देवता से कम नहीँ लग रहा था l फिर उसे याद आया एक बार उसके पापा ने कहा था, प्रभु हमेशा उनकी परीक्षा लेते हैँ,  जो प्रभु के प्रिय होते हैँ, भगवान पर विश्वास रखना चाहिए l वह सबकुछ देखते रहते हैँ, और ज़ब कष्टों की सीमा पार होने लगती है, तब वो किसी भी रूप में प्रकट होकर चुटकी में सारे कष्ट दूर कर देते हैँ l 

शायद मधुकर जी भगवान के भेजे हुए कोई फ़रिश्ते ही हैँ l इस तरह अगली सुबह आ गई.. और अनिरुद्ध सुबह से ही नहा धोकर तैयार होकर मधुकर जी की प्रतीक्षा करने लगा l मधुकर जी आज के दिन आने का वादा कर के गए थे, यह बात उसे एक पल भी नहीँ  भूली थी l

   ठीक 10 बजे दरवाजे पर दस्तक हुई l अनिरुद्ध ने दौड़कर दरवाजा खोला, मधुकर जी अपने चिर परिचित अंदाज़ में मुस्कुराते हुए खडे थे l अनिरुद्ध को साफ सुथरे कपड़ों और नई हेयर स्टाइल में देख कर प्रसन्न हो गए, उसका  का बदला हुआ हुलिया  गौर से नीचे से ऊपर तक एक क्षण देखते रहे, फिर मुस्कुराते हुए अंदर आ कर उसी कुर्सी पर बैठ गए जहाँ पहले दिन बैठे थे l कमरे में इधर उधर दृष्टि डाल कर बोले.. 

कैसे हो अनिरुद्ध..अच्छे से  नींद आई?? 

जी बिलकुल ठीक हूँ l अनिरुद्ध दोनों हाथ जोड़कर बोला, वह स्वयं को मधुकर जी के महान व्यक्तित्व के सामने बहुत छोटा अनुभव कर रहा था l

  सर मैं आपके लिए चाय बोल कर आता हूँ... 

रहने दो मैं पहले ही रिसेप्शन पर दोनों के लिए चाय  बोल के आया हूँ l

   अब बताओ केसा लग रहा है तुम्हे? 

मधुकर जी ने बहुत स्नेह से पूछा... 

सर ऐसा लग रहा है जैसे मैं फिर से जिन्दा हो गया हूँ l आपका एहसान इस जीवन में तो शायद नहीँ चुका पाऊँगा l अनिरुद्ध का स्वर भारी हो गया था l

   उसी बीच चाय आ गई l दोनों ख़ामोशी से चाय पीते रहे, फिर मधुकर जी खाली कप टेबल पर रखते हुए बोल उठे.. 

मुझे लगता है 2 दिनों में तुम्हारी मानसिक अवस्था ठीक हो गई होंगी, अब तुम सोचने समझने की स्थिति में हो l शायद तुमने अपने भविष्य के बारे में भी सोच लिया होगा l आगे तुम्हे क्या करना है.. 

मैं चाहता हूँ कि तुम मुझे अपनी पूरी योजना विस्तार से बताओ, मैंने इसी लिए तुम्हे 2 दिन बिलकुल स्वतंत्र छोड़ दिया था l

अभिमन्यु मन ही मन सोच रहा था, मेरे मन की हर बात बिना बोले कैसे समझ लेते हैँ मधुकर जी... 

प्रकट में बस इतना कह सका..... जी सर बताता हूँ l

मेरा इंजीनियरिंग का लास्ट सेमेस्टर है, लेकिन उसके लिए फीस जमा करनी होंगी, साथ ही रहने को किराये का छोटा सा घर, और खर्च... कुल मिलाकर यदि मुझे 10 हजार रु महीने की तनख्वाह पर कोई नौकरी मिल जाए तो मैं काम के साथ अपनी पढ़ाई भी पूरी कर लूँगा l और अगले 2 सालों में सबकुछ ठीक हो जायेगा l 

कुल मिलाकर कितना खर्च आएगा इस सब में? 

मधुकर जी ने सीधा प्रश्न किया... 

सर करीब 70, 000/ फीस और यदि जल्दी ही कोई नौकरी मिल गई तो 10000 और... 

यानी कुल मिलाकर 80, 000 /....?? 

जी सर और उसके अलावा एक किराये का कमरा और एक छोटी सी नौकरी..

लेकिन.. यह सब लगभग असम्भव है...  अनिरुद्ध ने मधुकर जी की और असहाय भाव से देख कर बोला l

  असम्भव कुछ नहीँ होता बेटा..   

तुम्हारी नौकरी के लिए मैं पहले ही बात कर चुका हूँ, मेरे एक घनिष्ठ मित्र हैँ, एक दैनिक समाचार पत्र में सम्पादक हैँ, वहाँ तुम्हारी  फिलहाल सहायक के पद पर पोस्टिंग हो जाएगी l 15000/ मासिक वेतन पर आगे तुम्हारी मेहनत पर निर्भर करता है l

और मेरे एक अन्य मित्र हैँ. उनका घर का ऊपर का एक अटैच्ड कमरा खाली है, जिसका किराया तुम्हे 2000/ महीने के हिसाब से देना होगा l 

मधुकर जी बोलते जा रहे थे, और अनिरुद्ध मुँह फाड़ कर, मूर्खों की भांति अविश्वास से उनका चेहरा देख रहा था l  

ठीक है...? 

मधुकर जी का प्रश्न सुनकर उसे होश आया... उसने केवल सहमति में अपना सिर दाएं बाएं हिला दिया.. बोला कुछ नहीं l

... मधुकर जी एक क्षण रुके... और आगे बोलना शुरू किया..तुम्हारी नौकरी और रहने की व्यवस्था करने में तो मेरा कुछ भी खर्च नहीँ हुआ, लेकिन तुम्हारी फीस के पैसे मुझे देने होंगे l rs. 80000/.. 

इतना ही बोला था न तुमने....? 

मधुकर जी ने कन्फर्म किया.. 

जी सर बस फीस के पैसे..पहले ही  जमा करने होंगे l

ठीक है वो मैं कर दूँगा l 

अब मेरी बात ध्यान से सुनो.. 

80, 000/ और अभी तक मैं तुम्हारे ऊपर कुल मिलाकर 3600/ खर्च कर चुका हूँ, तो कुल मिलाकर हुए - 83600/.. 

तुम्हे ये पैसे ब्याज के साथ मुझे वापस करने होंगे l

जितना जल्दी करोगे ब्याज उतना कम लगेगा l

मर्जी तुम्हारी..   

और सबसे जरूरी बात ये काफी बडी रकम है, मैं बिना किसी गारंटी के तुम्हे इतनी बडी रकम कैसे दे  सकता हूँ, तुम्हे गारंटी के लिए अपना कुछ कीमती सामान मेरे पास गिरवी रखना होगा l 

      अनिरुद्ध का दिमाग़ मधुकर जी की पहेली जैसी बातों से पूरी तरह उलझ गया था, मधुकर जी की कोई बात उसकी समझ में सिरे से नहीँ आ रही थी l

वह मूर्खों के जैसे पलकें झपकाते हुए बस एक टक मधुकर जी की और देखते हुए मुश्किल से बस इतना बोल पाया...... "सर.... आप मजाक कर रहे हैँ, आपको मैं अपने बारे में एक एक शब्द बता चुका हूँ, आप जानते हैँ...  मेरे पास गारंटी में आपको देने के लिए कुछ भी नहीँ है...

है क्यों नहीं... ? 

मधुकर जी तपाक से बोले... 

उनका स्वर खुरदुरा सा था, और चेहरा भावहीन.. 

.. प्रश्नवाचक दृष्टि से अनिरुद्ध उन्हें देख रहा था.. 

"तुम्हारी कविताएं"

मधुकर जी एकदम से बोल उठे.. 

और अनिरुद्ध चौंक गया.. 

सर कविताएं.... ? 

क्या आपको लगता है, कि यह उचित डील है? 

मेरी कविताएं इतनी बडी रकम की गारंटी हो सकती हैँ?? यदि आप को ऐसा लगता है तो मुझे क्या आपत्ति हो सकती है, वैसे भी मुझे आगे से कुछ भी नहीँ लिखना.. मेरी रुचि अब लेखन में नहीं रही l 

अनिरुद्ध ने एक साँस में कह दिया.  

लेकिन मैं चाहता हूँ कि तुम लगातार पहले की तरह लिखते रहो.. मधुकर जी ने अनिरुद्ध की बात बीच में काट दी l

आपकी इच्छा मेरे लिए आदेश है सर... जैसा आप कहें.. अनिरुद्ध ने अपने दोनों हाथ जोड़ लिए.. 

और नीले  बेग को खोल कर लाल डायरी निकाल कर मधुकर जी की और बढ़ा दी l

   इसे अपने पास ही रखो.. 

सर मैं समझा नही.. 

अनिरुद्ध असमंजस में था... 

मैं समझाता हूँ,  तुम्हारी कविताएं मेरे पास गिरवी रहेंगी l डायरी तुम्हारे पास ही रहेगी, तुम्हे बस एक वचन देना होगा, कि ज़ब तक तुम मेरा कर्ज व्याज के साथ चुका नहीँ देते, तब तक इस लाल डायरी की कोई भी कविता प्रकाशित करने का अधिकार तुम्हे  नही होगा l

अनिरुद्ध का सिर चकरा गया था l

उसके रुंधे गले से केवल अटकते शब्द निकले . 

सर मैं वचन देता हूँ...

और आँखों से आँसू की धार फूट पड़ी l अनिरुद्ध काफ़ी देर तक फफक-फफक कर रोता रहा  l

मधुकर जी करीब आए मुस्कुरा कर अनिरुद्ध के  सर पे हाथ रखा.. और बोले.. 

बेटा ये कोई छोटी सी डील नहीँ है, हर पल याद रखना कि तुम्हारी कविताएं मेरे पास गिरवी हैँ और तुम ब्याज सहित मेरा कर्ज चुकाए बिना इन कविताओं को कभी भी प्रकाशित नही करवा सकते l

समझ गया सर....ये अनोखी डील और .आपकी यह बात पल पल  याद रहेगी  अनिरुद्ध के चेहरे पर निश्चय के भाव थे l

चलो फिर तयार हो जाओ, तुम्हारी नौकरी के सिलसिले में सम्पादक जी से मिलना है समय हो रहा है l लौटते हुए तुम्हे कमरा भी देखना है l

मधुकर जी के चेहरे पर निश्छल मुस्कान थी, और अनिरुद्ध जैसे उनके अहसानों के बोझ तले दबा जा रहा था l

और कुछ देर बाद दोनों सम्पादक महोदय के ऑफिस में बैठे थे l

  

                 लगभग दो साल का समय बीत चुका है,अनिरुद्ध एक बहुत बडी फर्म में चीफ इंजीनियर है, बहुत सारे लोग  ऑफिस में उसके अधीनस्थ काम करते हैँ,अनिरुद्ध के ऑफिस में ठीक उसकी सीट के सामने मधुकर जी की मुस्कुराती हुई एक बडी सी तस्वीर लगी हुई है l बहुत बडे बंगले में अकेला रहता है, साथ साथ वह अभी भी उस समाचार पत्र को नियमित रूप से अपनी सेवाएं देता है, जहाँ उसे मधुकर जी ने पहली बार नौकरी दिलवाई थी l मधुकर जी नियमित रूप से अनिरुद्ध की ख़बर लेते रहते हैँ, और अनिरुद्ध ज़ब भी कोई नई कविता लिखता है, सबसे पहले मधुकर जी को सुनाता है, और मधुकर जी वैसे ही खुश होते हैँ  और उस पर  गर्व महसूस करते हैँ, जैसे कभी अनिरुद्ध के पापा किया करते थे l अनिरुद्ध काफी पहले मधुकर जी का कर्ज व्याज सहित चुका कर अपनी अपनी गिरवी कविताओं को मुक्त कर मधुकर जी को दिए वचन से मुक्त हो चुका है l

        आज का दिन विशेष है,शहर का एक बहुत बड़ा कम्युनिटी हाल रंग बिरंगी रौशनी से जगमगा रहा है, शहर भर की साहित्य के क्षेत्र में जानी मानी सभी हस्तियां आज के कार्यक्रम में आमंत्रित हैँ l एक बहुत नामी साहित्यिक संस्था ने आज का यह कार्यक्रम स्पॉन्सर किया है, उच्च कोटि के कवियों के काव्य पाठ के साथ साथ आज शहर के एक बहुत ही लोकप्रिय कवि की कविताओं के संकलन गिरवी कविताएं का शहर के प्रतिष्ठित कवि श्री मनमोहन मधुकर जी के कर कमलों से विमोचन होना है l

___समाप्त____

©संजीव शुक्ला 'रिक्त'

टिप्पणियाँ

  1. अत्यंत उत्कृष्ट कहानी🙏🙏

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  2. बहुत ही रोचक हृदयस्पर्शी कहानी

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  3. अत्यंत भावपूर्ण एवं हृदयस्पर्शी कहानी 👌👌👌👏👏👏🙏🙏
    हृदय की गहराइयों में उतरते पात्र हैं 🙏🙏

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  4. अत्यंत रोचक एवं भावपूर्ण कहानी भाई 👌👌👌👏👏👏💐💐

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  5. हर किसी के नसीब में मसीहा नहीं होता है।
    बेहद रोचक दास्ताँ।

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