एकदा ©रानी श्री

 एकदा मेरी भी कविताओं के

शीर्षक बन जाओ तुम।


तुम्हें प्राप्त कर मेरी कविता

ना कदापि लज्जित हो, 

वरन् तुमसे स्वयं को अलंकृत कर

मेरी कविता सुसज्जित हो,

तत्पश्चात उसकी आकृति के,

प्रकृति व प्रवृत्ति के,

संपूर्ण रूपेण एकमात्र 

आलोचक बन जाओ तुम, 

एकदा मेरी भी कविताओं के

शीर्षक बन जाओ तुम।


रुधिर कणिकाओं की भांति 

प्रत्येक शब्द में समाहित होकर,

रक्त की स्याही बन उसके 

अंग-अंग में निरंतर प्रवाहित होकर,

मेरी कविताओं का भेष बनकर,

युगांतर तक उनमें शेष रहकर,

स्वच्छंद प्रकार के एक 

मुक्तक बन जाओ तुम,

एकदा मेरी भी कविताओं के

शीर्षक बन जाओ तुम।


प्रत्येक कविता के केवल

तुम ही पात्र रहो,

व प्रत्येक कविता में 

तुम ही मात्र रहो,

धरा पर अल्पना की भांति, 

हिय में उत्पन्न कल्पना की भांति,

प्रत्येक कविता के केवल एक

वाचक बन जाओ तुम,

एकदा मेरी भी कविताओं के 

शीर्षक बन जाओ तुम।


तब ये तन नहीं कलुषित हो

ना सीमाओं में ना कहीं अनंत में,

व मन भी ना ये दूषित हो

ना आरंभ में ना कहीं अंत में,

मस्तिष्क नहीं हृदय से निर्णय कर,

इस जोगिन संग प्रेम-प्रसंग तय कर,

यहाँ से वहाँ तक आकर्षण में

आकर्षक बन जाओ तुम, 

एकदा मेरी भी कविताओं के

शीर्षक बन जाओ तुम।

         

टिप्पणियाँ

  1. अति सुंदर एवं भावपूर्ण पंक्तियाँ 👌👌👌👏👏👏

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

कविता- ग़म तेरे आने का ©सम्प्रीति

ग़ज़ल ©अंजलि

ग़ज़ल ©गुंजित जैन

पञ्च-चामर छंद- श्रमिक ©संजीव शुक्ला 'रिक्त'