रोने पे रो दिये ©परमानन्द भट्ट

 जो हो चुका  था आज उस होने पे रो दिये

कुछ लोग गुज़रे वक्त के रोने  पे रो दिये


है हाथ में उसको सदा मिट्टी ही मानकर

जो मिल न पाया था उसी सोने पे रो दिये


रोने का जिनको मर्ज था रोते रहे यहाँ

पाने को रो दिये कभी खोने पे रो दिये


गोदी में अम्मा की जहाँ सोया किये थे हम

सिर को टिकाकर आज उस कोने पे रो दिये


भाया नहीं पावन ' परम' तुलसी उखाड़ना

हम नागफन की पौध के बोने पे रो दिये


©परमानन्द भट्ट

टिप्पणियाँ

  1. बेहद खूबसूरत रचना सर जी👏🏻👏🏻👏🏻💐💐💐💐🙏

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  2. अत्यंत संवेदनशील एवं भावपूर्ण सृजन 💐💐💐🙏🏼

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  3. बेहद खूबसूरत भावपूर्ण सृजन 🙏🙏🌺🌺🌺

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