दोहा: माता ©नवल किशोर सिंह
1.
चला चाक निर्माण का, माता बनी कुम्हार।
माटी कच्ची पाथकर, देती है आकार।
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2.
यह तन बर्तन के सरिस, माता एक कुम्हार।
अंतस आँवे में पका, गढ़न करे साकार।
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3.
माता ममता मंगला, ईश्वर के अनुरूप।
पंचतत्व के योग से, गढ़ती रूप अनूप।
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4.
माता निश्छल लेखिका, सृजन सार उरुगाय।
अक्षर अर्पण नेह से, रचती नव अध्याय।
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5.
माता मेरी साँस में, हाड़-माँस में पैठ।
दूर कभी होती नहीं, रही रुधिर में बैठ।
-©नवल किशोर सिंह
अति सुंदर एवं सार्थक दोहे 💐💐💐💐🙏🏼
जवाब देंहटाएंअद्भुत रचना सरजी🙏🙏
जवाब देंहटाएंअद्भुत, अत्यंत उत्कृष्ट एवं सटीक दोहे 👌👌👌🌺🌺🌺🙏🙏
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार💐💐
जवाब देंहटाएंअत्यंत उत्कृष्ट दोहे सर👏👏👏
जवाब देंहटाएंसुंदर, सार्थक दोहे सर l🙏
जवाब देंहटाएंअद्भुत दोहे सर जी🙏
जवाब देंहटाएंअतिसुन्दर उत्कृष्ट सृजन🙏🙏
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