उलझन ©रेखा खन्ना
उलझता हूँ अब अक्सर अपने ही ख्यालों और ख्वाबों से
कितना भी समझाऊँ ख्वाबों को, हटते नहीं है बेवजह दिल जलाने से।
थी जिंदगी थोड़ी उलझी और थोड़ी सुलझी हुई सी
मन है कि जाने क्यूँ हटता नहीं है मरू में फूल खिलाने से।
वो बारिश में भीगी मिट्टी की सौंधी खुशबू लिए दाखिल हुए जिंदगी में
तल्लिखियाँ मेरी बाज ही ना आई बेवजह दिल दुखाने से।
जमाने को जाने क्यूँ भाता है मोहब्बत में तारे तोड़ लाना
मैं क्यूँ अलग हूँ जो रो देती हूँ एक तारे के बेवजह टूट जाने से।
समंदर अपनी अथाह गहराई को दिखाता है डूबाने के बाद
मोहब्बत में डूबा दिल क्यूँ हटता नहीं खुद को तबाह कर रूलाने से।
कहने को जिंदा हूंँ पर मरघट हूँ अपने ख्वाबों और ख्यालों का
मैं मरघट हूँ याँ ख्वाहिशों को मज़ा आता है खुद को मुझ में दफनाने से।
किनारे के तटस्थ पत्थर जानते हैं कि लहरें उनकी ना होंगी कभी
बीच समंदर की लहरें फिर क्यूँ हटती नहीं मोहब्बत जताने से।
तकदीर ऐसी ना थी कि जी भर कर हँसते किसी के सँग कभी
सुख दुःख बाँटने की चाहत में जाने क्यूँ दिल हटता नहीं है हक जताने से।
©रेखा खन्ना
मैं क्यों अलग हूँ जो रो देती हूँ एक तारे के टूट जाने से....वाहहहहहह🙏👏
जवाब देंहटाएंShukriya
हटाएंभावपूर्ण रचना 💐
जवाब देंहटाएंShukriya apka 🙂
हटाएंअत्यंत सुंदर रचना मैम👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻
जवाब देंहटाएंShukriya
हटाएंबेहद भावपूर्ण मैम 👏
जवाब देंहटाएंShukriya
हटाएंबहुत सुंदर maam 👌👌
जवाब देंहटाएंShukriya
हटाएंअत्यंत संवेदनशील एवं भावपूर्ण रचना 💐💐💐💐💐
जवाब देंहटाएंShukriya
हटाएंबेहद खूबसूरत, भावपूर्ण रचना 👌👌👌💐💐💐
जवाब देंहटाएंShukriya
हटाएंबहुत भावपूर्ण
जवाब देंहटाएंShukriya
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