कदाचित ©लवी द्विवेदी

 शिथिल पिपासा विभावरी की अनघ कामना,  

कभी कदाचित तिमिर ओज हों एक कल्पना। 


भाँति भाँति उन्मादित आशावादी तारें, 

क्षण समक्ष, क्षण-क्षण विलुप्त होकर दिखलातें। 

एक पंक्ति की थाह समझ, क्षण अगणित शोभा, 

दूर क्षितिज पर बैठे जन विचलित हो जातें। 

भ्रमर प्रकृति है भृङ्ग मनुज की मूक यातना। 

 कभी कदाचित तिमिर ओज हों एक कल्पना। 


एक वृक्ष की रुग्णित डाली श्याम अमा सी, 

हो विह्वल वह मूक अवस्था सी दिखलाती। 

पर खद्योत रश्मि छवि संमुख पादप पाकर, 

संजीवनी मधुर स्मृतियाँ क्षण दर्शाती। 

खग अनुपस्थित रात्रि अचल पर सुखद भावना। 

कभी कदाचित तिमिर ओज हों एक कल्पना। 


विलग भाव की आभा ही अंगार हुई जब, 

तीन पहर क्या सदी बीतते बात वही है। 

सरिता की कल-कल करती भयभीय निशा में, 

उदयकाल मेँ मनु मन गंगा, पावन ही है। 

भाँति समय में भाँति-भाँति की ज्ञान साधना। 

कभी कदाचित तिमिर ओज हों एक कल्पना। 

©लवी द्विवेदी

टिप्पणियाँ

  1. अत्यंत उत्कृष्ट एवं प्रभावशाली कविता 💐💐💐💐

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  2. अत्यंत उत्कृष्ट कविता सृजन 👌👌👌💐💐💐💐💐

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  3. अत्यंत उत्कृष्ट, अनुपम गीत🙏

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  4. उत्कृष्ट, भावपूर्ण कविता...., सुंदर शब्द संयोजन 🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺

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