विदाई ©रेखा खन्ना

 


देखो नया साल सर पर आ खड़ा हुआ है और मैं सोचती ही रह गई कि साल की शुरुआत में कौन सा तोहफा दूं तुम्हें पर कुछ समझ ही नहीं आया।


पता है पहले सब कुछ इक्कठा कर के  इस 🎁 डिब्बे में सहेज कर कर रख लेती थी। इसमें वो पल थे जिन्हें मैं खुशी खुशी जीने लगी थी और साथ ही में वो सारी खुशियांँ और मुस्कुराहटें थी जो तुमने मुझे दी थी और जब भी मैं उदास होती तो डब्बे को खोल कर इसमें झांकती और फिर से खुशी की लहर मेरे चेहरे पर दौड़ जाती ऐसे जैसे तुम सामने ही हो मेरे।


जैसे जैसे वक्त बीतता गया वो खुशियांँ और मुस्कुराहटें ना जाने कहांँ खो गई। खैर वो तो सिर्फ लम्हें थे पर असल में खो तो तुम गए थे अपनी ही दुनियाँ में और मैं नाहक ही तुम से उम्मीद लगा बैठी थी।


अब वो सुनहरे पल दब कर रह गए हैं कहीं बहुत नीचे इस डिब्बे में क्योंकि अब उसमें मैं रोज़ सुबह और शाम तुम्हारी भेजी हुई खामोशियों को रखने लगी हूंँ और शायद उन गुजरे लम्हों का दम घुटने लग गया हैं इन भारी भरकम खामोशियों के भार के नीचे।


ना जाने कब से इन्हें इक्कठा करने में लगी हुई हूंँ कि अब जगह ही नहीं बची। सोचती हूंँ क्यूंँ ना तुम्हें तोहफा देने की जगह एक नया डब्बा खुद को ही तोहफे में दे दूं तुम्हारी तरफ से और उसमें एक नोट भी छोड़ दूंगी ..... 

" अभी और खामोशियों को भेजूंगा, सहेज कर रखना " ।


धीरे धीरे दिल को इसकी आदत सी हो गई है। हांँ पहले फर्क पड़ता था तो कह देती थी बात किया करो पर अब, अब तो आदत हो गई है अब फर्क नहीं पड़ता, अब इंतज़ार भी नहीं होता । बस सुबह एक खामोशी उठाती हूंँ और डब्बे में रख देती हूंँ फिर रात को दूसरी उठा कर रख देती हूंँ अपने तय समय पर। बस इतना ही रिश्ता है हम दोनों के बीच। इससे ज्यादा कभी बढ़ ही नहीं पाया।


जो रिश्ता जितनी जल्दी बनता हैं उतनी ही जल्दी खत्म भी हो जाता है। हांँ सही तो है कहते हैं ना हर वस्तु नश्वर है तो इनमें रिश्ते, प्यार-मोहब्बत, लगाव, फिक्र, चिंता ये सब भी तो आता ही होगा ना। 


अच्छा ये तो बताओ तुमने क्या सोचा क्या दोगे मुझे साल की शुरुआत में। अरे ये क्या कहा ... नहीं सोचा ? क्यूंँ नहीं सोचा? सोचना चाहिए था ना कि क्या तोहफा दोगे मुझे? 

चलो कोई बात नहीं । अगर कहो तो मैं ही बता दूं तुम्हें कि तुम मुझे क्या दे सकते हो। नहीं अगर बता दिया तो तोहफा कैसा ? मैं खुद ही ना ले लूंँ।


कश्मकश में जिंदगी बीत रही है। हर बीता साल, उम्र का एक साल भी ले जाता है अपने साथ ,पर बीतता साल उदासियांँ, दुःख, तकलीफ़, बैचेनियांँ .... ये सब अपने साथ क्यूंँ नहीं लेकर जाता है क्यूंँ इन सबको जान खाने के लिए मेरे पास ही छोड़ जाता हैं। अब लगता है जैसे बीता साल मोहब्बत भी ले गया अपने साथ। वो भी नहीं अब मेरे पास। हाथ बिल्कुल खाली है। कभी कभी तो लकीरें भी नहीं दिखती मुझे कि उन में झांक कर अपना अच्छा वक्त ढूंँढ सकूंँ।


हांँ, सही तो हैं कहांँ है मोहब्बत, मोहब्बत होती तो मेरा डब्बा मोहब्बत से भरा हुआ मिलता पर वो सिर्फ खामोशियों से भरा हुआ है। पर अब यूं भी लगता है जैसे खामोशियों को इकट्ठा करते करते मैं भी खामोश रहने लगी हूंँ । इनका गहरा असर मुझ पर भी होने लगा है।

हांँ सही में पहले गौर नहीं किया था ये पर अब गौर करती हूंँ तो महसूस होता है कि मैं भी कितनी खामोश हो गई हूंँ।


पहले मेरे पास बातों के भंडार होते थे और अब कुछ भी नहीं बात करने को। मोहब्बत के साथ साथ मैं भी खो ही गई हूंँ। क्यूंँ तुमने मुझे अपने संग नाहक ही बांध रखा है। क्यूंँ ना मैं ही तुम्हें आज़ाद कर दूं। 


हांँ, यही सही होगा मैं ही तुम्हें आज़ाद कर देती हूंँ इस तरह मैं तुम्हें कभी किसी इल्ज़ाम से परेशान ना कर सकूंगी और तुम भी चैन से चिंता मुक्त हो कर जी सकोगे। 

हांँ चाहो तो गाहे-बगाहे ताना मार देना " कि तुम ही निभा ना सकी , मैंने तो निभाना चाहता था। तुम ही रास्ता बदल कर चली गई " ।


कहो सही कहा ना। हांँ शायद यही सही रहेगा।


मोहब्बत है नहीं तो निभाया किसे जाए

दिल में जगह नहीं तो घर बनाया किधर जाएं।।


अरमानों को कब तक डब्बे में बंद कर रखती रहूंँ

खामोशियों को कब तक दिल में सहेजा जाए।।

      © रेखा खन्ना

टिप्पणियाँ

  1. अत्यंत संवेदनशील एवं गहन भाव लिए हुए हैं 👌👌👌👏👏👏🙏

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  2. बहुत भावपूर्ण दिल को छू गई 👌❤️

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