गीत ©नवल किशोर सिंह

 चरते चारे बन बेचारे, साँढ़ सकल सरकारी।

बीच खेत में भेड़ भटकती, सूखी घासें सारी।

 

वादा करके हरे भरे का, पहले तो फुसलाया।

परती धरती के प्रांगण में, फिर खदेड़ पहुँचाया।

रेह गेह में धूप धमक से, करती काया छटपट,

बैठ मेड़ पर चतुर गड़रिया, करता पहरेदारी।

 

सूख गईं बूँदें रेतों में, नयनों से जल प्लावन।

डूब गया मन-मरुथल लेकिन, सिकता में है सावन।

ठूँठ ठठेरा मुँह बिचकाता, खड़ा बिजूका जैसे,

घिसे अँगूठे से खेतों को, लील गया पटवारी ।

 

साहस संबल खूब जुटाकर, निकला बाहर भेड़ा।

मिमियाकर निज कथा सुनाया, समझे सभी बखेड़ा।

पत्ते हरे शिकारी लेकर, बहलाता भेड़ों को,

समय देखकर कुर्बानी का, काट गया पद-धारी।


-© नवल किशोर सिंह

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