ग़ज़ल ©संजीव शुक्ला

 सभी की खैर की चाहत तुम्हारी l

मियाँ अच्छी नहीं आदत तुम्हारी l


बिना माँगे मयस्सर हो किसी को.. 

करेगा क्यों कभी कीमत तुम्हारी  l


यहाँ मेहमान हो तुम बिन बुलाये.. 

कोई कैसे करे इज्जत तुम्हारी  l


सुनो, सच की जरूरत ही कहाँ है... 

अगर हो झूठ मेँ लज्जत तुम्हारी ll


उसे तुमसे अगर मतलब न होता.. 

तो क्यूँ करता भला ख़िदमत तुम्हारी l


परेशाँ हो किसी की फ़िक्र मेँ फिर.. 

उडी है आज फिर रंगत तुम्हारी l


न हो ज़ेर-ओ-ज़बर कुछ ज़िन्दगी मेँ.. 

अजी ऐसी कहाँ किस्मत तुम्हारी l

© संजीव शुक्ला

टिप्पणियाँ

  1. बेहतरीन अल्फ़ाज़ बेबाक गज़ल 👌👌👌👏👏🙏🙏

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  2. बहुत ही उम्दा ग़ज़ल 👌👌👏🏻👏🏻

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