तृष्णा ©परमानन्द भट्ट

 तृष्णा तृप्त हुई ना अब तक

बीती जाती यार उमरिया

रेत रेत रिश्तों की नदिया

कहाँ भरेगी  नेह गगरिया


पनघट पनघट प्यास नांचती

सूख गया आँखों का पानी

खाली खाली गगरी लेकर

कहाँ चल पड़ी ओ दीवानी


बिका बिकी का खेल अनौखा

चलता है जग के मेले में

महफिल महफिल जो हँसता

है, रोता वही अकेले में


मन मरुथल की सूनी सूनी

खाली खाली आज डगरिया


पपड़ाये सूखे अधरों को

नेह नीर भी कब मिल पाया

उम्मीदों की गागर खाली

जीर्ण हुई जाती है काया


फिर भी काया की मनिहारिन

इस मेले में भटक रही हैं

थके थके बोझिल नयनों मे

कुछ उम्मीदे लटक रही हैं


उम्र गुजरती पर ना मिलती

नेह नीर की हमें खबरिया ।


© परमानन्द भट्ट

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