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बाकी है ©अंजलि 'जीआ'

 नमन माँ शारदे नमन लेखनी नाकामयाबी का मुझमें  असर बाकी है, शायद मेहनत में थोड़ी  कसर बाकी है। शानो- शौकत में है परिंदो का नया जहां, कुछ नहीं बस  एक बूढ़ा शजर बाकी है। जाने सब आते वक्त के नक्शे बनाए इंसाँ, ना जाने तो बस की कितनी उमर बाकी है। गहरात से सजे हो अल्फ़ाज़ मोहब्बत के, इश्क़ मीरा-सा पाक अब किधर बाकी है। राहों में मेरी  बुझता चिराग जल जाता है, 'जीआ' उस डमरू वाले की नज़र बाकी है। ©अंजलि 'जीआ'

गीत- गंगा तट ©गुंजित जैन

नमन, माँ शारदे नमन, लेखनी विधा- गीत शीर्षक- गंगा तट छिपे हुए हैं तट गंगा के, माता के आलिंगन में। अश्रु कणों का रिमझिम करता, भीगा सावन आया है, गरज दामिनी ने अंतर का, कैसा द्वंद बताया है! स्वयं दुखी हैं या भीगे हैं, दुखी मेघ के क्रंदन में, छिपे हुए हैं तट गंगा के, माता के आलिंगन में। नवल पात ने उत्साहित हो, पादप को अपनाया है, शाखाएँ विस्तृत कर पादप भी कितना हर्षाया है, चारों दिशा हर्ष विसरित है, लेकिन क्यों दुख चिंतन में? छिपे हुए हैं तट गंगा के, माता के आलिंगन में। बढ़ती पीर नीर लहरों ने, अस्थिर चित्त बनाया है, भय से सहमे अस्थिर तट को, सूरज बदल न पाया है, लौट तटों की शांत शिथिलता, आएगी क्या जीवन में? छिपे हुए हैं तट गंगा के, माता के आलिंगन में। ©गुंजित जैन 

गीत- युद्ध ©सम्पदा मिश्रा

 नमन, माँ शारदे नमन लेखनी विधा- गीत युद्ध खुद से लड़ रहा है। कोई दुखी नहीं है जग में  क्यों कर कुुण्ठा पाल रहे तुम जीवन मेरा दुख मय सबसे   मन में भ्रम क्यों डाल रहे तुम अब निकलो फिर शोध करो तुम कौन अधीर नहीं दुनिया में  छप्पन भोग प्राप्त है जिनको  मन की शांति नहीं कुटिया में  जिसका बेटा बोल सके ना  ना ही कोई संवाद करें  उसकी भी समृद्धि का यह  जन जन बस उपहास करें  कौन वेदना का अंदाज़ा उसके मन की कर पाएगा  क्या तब भी इस कलयुग में  आबाद जहाँ वह पायेगा ? उसकी लेश मात्र की त्रुटि का  भार उस पर क्यों पड़ रहा है विकसित सुगठित सुन्दर मानव  भी युद्ध खुद से लड़ रहा है  पहुंच चुके है विकसित पथ पर  पर प्रभु की सत्ता मान रहे  विधना की कठिन परीक्षा से  वह लड़ने की फिर ठान रहे  बेबस होकर नतमस्तक है  विधि की निर्मित सत्ता से  वार सभी खाली जा रहे  उस नासग्रिक गुण वत्ता से  विधि ने खुद की इच्छा से ही  शोषित साम्राज्य बनाया है  मानव को इस भरम जाल से  क्षण क्षण पल पल  भरमाया है  पर मानव ने भी ईश्वर की  फिर बात कहाँ कब मानी है  उन्नति के पथ पर पहुंच गया  तो रार सभी से ठानी है  इसलिए यह पाश धरा पर  विधि का सबको

कविता- कविता ©संजीव शुक्ला 'रिक्त'

 नमन, माँ शारदे नमन, लेखनी  कविता-कविता मेरी कविता ओट लिए है , शांत हृदय के नील निलय में l श्याम मेघ के घूँघट पट में, बैठी है किंचित संशय में l श्वास हृदय के स्पन्दन में, क्षण-क्षण वह जीवित होती है l रुधिर प्रवाहित शिरा -शिरा में ,  प्राणों में संचित होती है l मानस अंतर्मन से उठकर, पीड़ा की सहचर बनती है l होकर वह आरुढ़ समसि में, ज़ब सुंदर अक्षर बनती है l झरझर निर्झर का कलकल रव, खग वृंदों का कलकल गायन l मोहक झोंके चंदन वन के, द्रुमदल पत्रों के वातायन l इंद्रचाप के विविध रंग से, कभी सजाती स्वप्न अलौकिक l कभी तारिका बनी निशा भर, प्रणय वृतांत सुनाती मौखिक l चंद्र वधूटी घूँघट घन से, झाँक कभी ओझल हो जाती l लज्जित दृग सिंदूरी आभा, कभी पवन चंचल हो जाती l एकाकी मन की संगिनि बन, प्रहरों मौन नयन तकती है l कभी कथाएँ प्रेम ग्रंथ की, प्रहरों सुनती है कहती है l मानस पट में कोलाहल कर, कभी कभी विचलित करती है l कभी नील नीरव अंबर का, मौन विचारों में भरती है l अंतर्मन का द्वन्द देखकर, वह अधीर चिंतित होती है l अटल लक्ष्य पथ से विचलन लख, कभी क्षणिक विस्मित होती है l देख दशा अस्थिर अंतर की, मंद मंद वह मुसकाती ह

एक ज़ख्म हँसता है मुझ पर ©रेखा खन्ना

 नमन, माँ शारदे नमन लेखनी  शीर्षक- एक ज़ख्म हँसता है मुझ पर ज़ख्मों के क्यूँ सैकड़ों हाथ होते हैं  एक को बाँधो तो दूसरे हरकत में होते हैं  ज़ख्मों की कच्ची तुरपाइयोँ को उधेड़ कर क्यूँ सुकून को जिस्म से निचोड़ने लगते हैं। पोर पोर दुखता है टाँके लगाने में उधेड़ने में क्यूँ हाथ नहीं कांपते हैं सुई है नुकीली या फिर सच चुभता है धागा है कच्चा या फिर ज़ख्म सच्चा है। चोट तो जिस्म पर लगती है  फिर क्यूँ निशान रूह पर उभरता है कसूर किसका है दिल ढूंँढता है? कमज़ोर क्या है, दिल या फिर सहनशक्ति? आघात बातों के खँजर से लगा था  या फिर विश्वास ने धोखा दिया था दिल छन्न से छाती के भीतर गिरा था जब ग़म का समंदर कितना गहरा हुआ था? एक ज़ख्म हंँसता है मुझ पर जब मुझे रोता हुआ देखता है शायद हंँस हँस कर अपनी गहराई नापता है या फिर नापता है हिम्मत मेरी, ये किसे पता है? आँख का आँसू कहे अब दरिया भी सूखने लगा है पुराना ज़ख्म कहे हंँस कर  नया ज़ख्म एक नया दरिया भेंट करेगा। क्यूँ बादलों का मेरी आँखों से रिश्ता है बिन मौसम बरसता बहुत है  पलकों के बाँध हैं कमज़ोर हो चले दरिया बंद पलकों से भी बह निकलता है। हर रात एक ज़ख्म ब

उसकी मोहब्बत ©सम्प्रीति

 नमन मां शारदे  नमन लेखनी उसके दिए हर ज़ख्म पर मरहम लगाती उसकी मोहब्बत, हाथ थामे साथ मेरा हरदम निभाती उसकी मोहब्बत। मेरे हिस्से के गम लेकर अपने हिस्से, हमेशा खुशियां मेरे हिस्से सजाती उसकी मोहब्बत। आगोश में उसके सब सही सा लगता है, मुझे मुझसा महसूस कराती उसकी मोहब्बत। बातों में उसकी सुकून का सहारा है, हर पल ये अहसास कराती उसकी मोहब्बत। उसका साथ जैसे कोई गहना सा है, लगाकर गले फिर मुझे सजाती उसकी मोहब्बत। छूअन उसकी मंदिर की पवित्र हवा सी है, छूकर मुझे फिर करीब ले आती उसकी मोहब्बत। विश्वास दिलाना, विश्वास कमाना एक तरफ है 'प्रीत', मुझे मुझपर हर रोज यकीन दिलाती उसकी मोहब्बत। ©सम्प्रीति “प्रीत”