नमन, माँ शारदे नमन, लेखनी कविता-कविता मेरी कविता ओट लिए है , शांत हृदय के नील निलय में l श्याम मेघ के घूँघट पट में, बैठी है किंचित संशय में l श्वास हृदय के स्पन्दन में, क्षण-क्षण वह जीवित होती है l रुधिर प्रवाहित शिरा -शिरा में , प्राणों में संचित होती है l मानस अंतर्मन से उठकर, पीड़ा की सहचर बनती है l होकर वह आरुढ़ समसि में, ज़ब सुंदर अक्षर बनती है l झरझर निर्झर का कलकल रव, खग वृंदों का कलकल गायन l मोहक झोंके चंदन वन के, द्रुमदल पत्रों के वातायन l इंद्रचाप के विविध रंग से, कभी सजाती स्वप्न अलौकिक l कभी तारिका बनी निशा भर, प्रणय वृतांत सुनाती मौखिक l चंद्र वधूटी घूँघट घन से, झाँक कभी ओझल हो जाती l लज्जित दृग सिंदूरी आभा, कभी पवन चंचल हो जाती l एकाकी मन की संगिनि बन, प्रहरों मौन नयन तकती है l कभी कथाएँ प्रेम ग्रंथ की, प्रहरों सुनती है कहती है l मानस पट में कोलाहल कर, कभी कभी विचलित करती है l कभी नील नीरव अंबर का, मौन विचारों में भरती है l अंतर्मन का द्वन्द देखकर, वह अधीर चिंतित होती है l अटल लक्ष्य पथ से विचलन लख, कभी क्षणिक विस्मित होती है l देख दशा अस्थिर अंतर की, मंद मंद वह मुसकाती ह