एक ज़ख्म हँसता है मुझ पर ©रेखा खन्ना
नमन, माँ शारदे
नमन लेखनी
शीर्षक- एक ज़ख्म हँसता है मुझ पर
ज़ख्मों के क्यूँ सैकड़ों हाथ होते हैं
एक को बाँधो तो दूसरे हरकत में होते हैं
ज़ख्मों की कच्ची तुरपाइयोँ को उधेड़ कर
क्यूँ सुकून को जिस्म से निचोड़ने लगते हैं।
पोर पोर दुखता है टाँके लगाने में
उधेड़ने में क्यूँ हाथ नहीं कांपते हैं
सुई है नुकीली या फिर सच चुभता है
धागा है कच्चा या फिर ज़ख्म सच्चा है।
चोट तो जिस्म पर लगती है
फिर क्यूँ निशान रूह पर उभरता है
कसूर किसका है दिल ढूंँढता है?
कमज़ोर क्या है, दिल या फिर सहनशक्ति?
आघात बातों के खँजर से लगा था
या फिर विश्वास ने धोखा दिया था
दिल छन्न से छाती के भीतर गिरा था जब
ग़म का समंदर कितना गहरा हुआ था?
एक ज़ख्म हंँसता है मुझ पर
जब मुझे रोता हुआ देखता है
शायद हंँस हँस कर अपनी गहराई नापता है
या फिर नापता है हिम्मत मेरी, ये किसे पता है?
आँख का आँसू कहे अब
दरिया भी सूखने लगा है
पुराना ज़ख्म कहे हंँस कर
नया ज़ख्म एक नया दरिया भेंट करेगा।
क्यूँ बादलों का मेरी आँखों से रिश्ता है
बिन मौसम बरसता बहुत है
पलकों के बाँध हैं कमज़ोर हो चले
दरिया बंद पलकों से भी बह निकलता है।
हर रात एक ज़ख्म बेतहाशा हँसता है मुझ पर
गर मैं सो जाऊँ तो कोई बात निकले
ज़ख्म चाहे झिंझोड़ ले कितना भी
ना रूह जागे, ना दिल धड़के तो कोई बात निकले।
©रेखा खन्ना
गहरे जज़्बात समेटे हुए बेहद भावपूर्ण सृजन 💐🙏🏼
जवाब देंहटाएंबेहद भावपूर्ण🙏
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