समय-सिंधु ©अंशुमान मिश्र

जब जब साज समय का बदला, बदली जग आवाज़,

समय-सिंधु में समा गए, कितने ही सभ्य समाज!


कभी कभी नर अहंकार वश, बन जाता भगवान,

पीड़ा पहुंचाता प्राणी को, नित करता अपमान!

अपने आगे और किसी की, एक नहीं सुनता,

बन स्वतंत्र स्वच्छंदाचारी, घृणित मार्ग चुनता!

अहंकार मद लेकर डूबा, रावण वंश जहाज!

समय-सिंधु में समा गए, कितने ही सभ्य समाज!


बड़े-बड़े ज्ञानी विज्ञानी, अर्जुन सदृश धनुर्धर,

नेपोलिन, सिकंदर, हिटलर, कंस और दशकंधर,

इस धरती पर पैदा होने वाला, कौन न भटका?

कौन शक्तिशाली है जिसको, नहीं काल ने पटका?

समयाधीन सदैव यहां सब, समय सदा सरताज,

समय-सिंधु में समा गए, कितने ही सभ्य समाज!


पल भर में विश्वास बदलता, हर मनुष्य का आज,

समय-सिंधु में समा गए, कितने ही सभ्य समाज!


                            - अंशुमान मिश्र "मान"

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