गीत- युद्ध ©सम्पदा मिश्रा
नमन, माँ शारदे
नमन लेखनी
विधा- गीत
युद्ध खुद से लड़ रहा है।
कोई दुखी नहीं है जग में
क्यों कर कुुण्ठा पाल रहे तुम
जीवन मेरा दुख मय सबसे
मन में भ्रम क्यों डाल रहे तुम
अब निकलो फिर शोध करो तुम
कौन अधीर नहीं दुनिया में
छप्पन भोग प्राप्त है जिनको
मन की शांति नहीं कुटिया में
जिसका बेटा बोल सके ना
ना ही कोई संवाद करें
उसकी भी समृद्धि का यह
जन जन बस उपहास करें
कौन वेदना का अंदाज़ा
उसके मन की कर पाएगा
क्या तब भी इस कलयुग में
आबाद जहाँ वह पायेगा ?
उसकी लेश मात्र की त्रुटि का
भार उस पर क्यों पड़ रहा है
विकसित सुगठित सुन्दर मानव
भी युद्ध खुद से लड़ रहा है
पहुंच चुके है विकसित पथ पर
पर प्रभु की सत्ता मान रहे
विधना की कठिन परीक्षा से
वह लड़ने की फिर ठान रहे
बेबस होकर नतमस्तक है
विधि की निर्मित सत्ता से
वार सभी खाली जा रहे
उस नासग्रिक गुण वत्ता से
विधि ने खुद की इच्छा से ही
शोषित साम्राज्य बनाया है
मानव को इस भरम जाल से
क्षण क्षण पल पल भरमाया है
पर मानव ने भी ईश्वर की
फिर बात कहाँ कब मानी है
उन्नति के पथ पर पहुंच गया
तो रार सभी से ठानी है
इसलिए यह पाश धरा पर
विधि का सबको जकड़ रहा है
विकसित सुगठित सुन्दर मानव
भी युद्ध खुद से लड़ रहा है
मानव जब अग्नि परीक्षा में
विधि की खरा उतर जाता है
तब अहं भाव उसके मन में
निश्चित ही घर कर जाता है
दुनिया लगती बौनी उसको
रिश्ते नाते छोटे लगते
पौरुष बस दिखलाई पड़ता
ईश्वर भी तब छोटे लगते
अनगिन गर्वित राजाओं के
हर युग में दृष्टांत पड़े है
जीवन के अंतिम क्षण में
वह खुद ही लहूलहान पड़े है
शांतिपूर्ण जीवन के खातिर
ईश शरण में जाना पड़ता
खुद की अक्षमता के खातिर
उन्हें गुहार लगाना पड़ता
कितनी उन्नति कर ले मानव
डोर धर्म की पकड़ रहा है
विकसित सुगठित सुन्दर मानव
युद्ध खुद से लड़ रहा है।।।।
©सम्पदा मिश्रा
अति सुंदर एवं प्रभावशाली सृजन 🙏🏼💐
जवाब देंहटाएंअत्यंत गूढ़, भावपूर्ण लेखन🙏
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