कविता- कविता ©संजीव शुक्ला 'रिक्त'

 नमन, माँ शारदे

नमन, लेखनी 

कविता-कविता



मेरी कविता ओट लिए है ,

शांत हृदय के नील निलय में l

श्याम मेघ के घूँघट पट में,

बैठी है किंचित संशय में l


श्वास हृदय के स्पन्दन में,

क्षण-क्षण वह जीवित होती है l

रुधिर प्रवाहित शिरा -शिरा में ,

 प्राणों में संचित होती है l


मानस अंतर्मन से उठकर,

पीड़ा की सहचर बनती है l

होकर वह आरुढ़ समसि में,

ज़ब सुंदर अक्षर बनती है l


झरझर निर्झर का कलकल रव,

खग वृंदों का कलकल गायन l

मोहक झोंके चंदन वन के,

द्रुमदल पत्रों के वातायन l


इंद्रचाप के विविध रंग से,

कभी सजाती स्वप्न अलौकिक l

कभी तारिका बनी निशा भर,

प्रणय वृतांत सुनाती मौखिक l


चंद्र वधूटी घूँघट घन से,

झाँक कभी ओझल हो जाती l

लज्जित दृग सिंदूरी आभा,

कभी पवन चंचल हो जाती l


एकाकी मन की संगिनि बन,

प्रहरों मौन नयन तकती है l

कभी कथाएँ प्रेम ग्रंथ की,

प्रहरों सुनती है कहती है l


मानस पट में कोलाहल कर,

कभी कभी विचलित करती है l

कभी नील नीरव अंबर का,

मौन विचारों में भरती है l


अंतर्मन का द्वन्द देखकर,

वह अधीर चिंतित होती है l

अटल लक्ष्य पथ से विचलन लख,

कभी क्षणिक विस्मित होती है l


देख दशा अस्थिर अंतर की,

मंद मंद वह मुसकाती है l

खींच भँवर,झंझावातों से,

नौका तट पर ले आती है l


शब्द वर्ण के विविध रूप में ,

भावों का चित्रण करती है l

मानस विचलन पीर हृदय की,

पृष्ठों को अर्पण करती है l


मन पीरक दुख की प्रतिकृतियाँ 

पृष्ठों के तल पर अंकित कर l

पुनः यथास्थान हृदय में,

ला कर रखती है संचित कर l


युगों युगों से आँख मिचोली,

कविता कवि से करती आई l

निकट न दूर गई अंतर से,

कवि की हुई न हुई पराई l


©संजीव शुक्ला 'रिक्त'

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