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जून, 2024 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

हरिगीतिका छंद ©लवी द्विवेदी

नमन, माँ शारदे नमन लेखनी छंद- हरिगीतिका चरण- चार (दो-दो या चार चरण तुकांत) कवने दिवस यदुनाथ मुदित महा कृपा बरसाइहौ,  निर्जन कुटी महु रंक की कवने दिवस ते आइहौ। प्रभु गेह पूज्य पदारविंद सहाय हो कब लाइहौ, कब नाथ जानि अनाथ मोको मानि सुत अपनाइहौ। मैं दीन कलुषित पातकी का विधि कृपा तिन गाइहौं,  मन मैल वस्त्र कषाय ले का विधि शरण तिन आइहौं।  यदि हो कृपा यदुनाथ की मझधार मैं तरि जाइहौं  व्यभिचार हो आचार यदि यदुनाथ आशिष पाइहौं। मृदुनैन नौकाकार जिन उन नैन काजर पारिहौं,  निज हाथ से बिनि आसनी चौपर्ति कै भुइ डारिहौं।  जल शुद्ध नहि, दृगधार से चरणारविंद पखारिहौं, लै राइ नून उतार अभल कुदृष्टि, प्रभु हिय वारिहौं।  प्रभु मात्र एकल बार दृष्टि बहोरि अपनी दीजिए, प्रभु देख लो यक बार मो इतनी कृपा हरि कीजिए।  सर्वस्व से तुम रीझते यक बार मोसे रीझिए,  कितना रहोगे दूर हरि अब और मत प्रभु खीझिए। ©लवी द्विवेदी "संज्ञा"

कविता- कुछ सूखे कुछ भीगे ख्याल ©रेखा खन्ना

नमन, माँ शारदे नमन, लेखनी  विधा - कविता मन के भीतर की बारिश से भीतरी ख्याल गीले थे बाहरी बारिश में बंद कमरे के भीतर की हवा में उड़ते ख्याल सूखे थे दोनों ख्यालों के बीच अंतर था  एक जज्बातों की बारिश के नीचे भीग कर  वजनदार बनकर दब से गए थे  और सूखे ख्याल बेपरवाह से यहाँ वहाँ बस भटक रहे थे भटकते ख्यालों को जज्बातों से क्या लेना  था वो‌ तो बस दिशा बदल रहे थे पर गीले हुए पड़े जज्बात बर्फ़ की मानिंद एक जगह जमा हो कर दिल पर बोझ बन पड़े थे जो ना बह कर निकल रहे थे ना पिघल रहे थे बर्फ़ हो चुके ख्यालों को एक सुकून भरे आगोश की गर्माहट की दरकार थी गर वो सुकून मिलता तो क्या भीतर बारिश का मौसम बनता? भीतर  बाहर बस एक दिलकश नज़ारा होता  कुदरत की बहारों में दिल उड़ता फिरता  बारिशों में भी फर्क होता है भीतर की बारिश दिखती शाँत है पर तूफानों को अपने भीतर समेटे होती है और पलकों का बाँध उसे रोके रखता है। ©रेखा खन्ना 

लघुकथा- अधूरी मोहब्बत ©संजय मिश्रा

नमन, माँ शारदे नमन, लेखनी ये मोहब्बत भी गज़ब की शै बनाई है ऊपर वाले ने, चाहो न चाहो हो जाती है बस। ये अफ़साना उस   किशोरावस्था का है , जो परीकथाओं और ख्वाबो ख्यालों की रंगभरी अनुभूतियों से भरी उम्र , समाज के अनुसार बहुत खतरनाक वयसन्धि मानी जाती है।  खैर ये उनकी अपनी राय पर मोहब्बत को उसकी फ़िक्र कंहा ।      बात काफी पुरानी है तो 30-35 साल पीछे चलते है       एक छोटा सा प्रशिद्ध  शहर था । उसमें  एक प्यारा सा मोहल्ला था जिसमें ये दोनों रहते थे । अरे  भाई और भी लोग रहते थे पर इस कहानी के दोनों पात्र वंही रहते थे ।      दोनों के पिता सरकारी महकमों में उच्च पदासीन थे, तो उन सरकारी बंगलो में उनके भी घर थे , आसपास सभी सरकारी मुलाजिमों के घर थे सब सभ्रांत और पढेलिखे समझदार और उस दौर के हिसाब से आधुनिक लोग थे । सो सभी लड़के लड़कियां साथ में बैडमिन्टन खेलते और सहज दोस्ती रखते ।      वंही उनकी मुलाक़ात हुई थी , वो अपने करीबी रिश्तेदार के यंहा रहकर अपनी पढाई  पूरी कर रहा था , सो दोस्तों के साथ घर के सामने बने छोटे से बगीचे में शाम को आ पंहुचता।       वो देखने में गोरा चिट्टा स्मार्ट सा किशॊर था, ओठों के

याद तुम्हारी ©ऋषभ दिव्येन्द्र

याद तुम्हारी जब-जब मुझको, आती है। नींद नयन से बदली बन उड़, जाती है।। बिना तुम्हारे जीवन का क्या, अर्थ लगे। सुरभित सुमन सुवासित कानन, व्यर्थ लगे।। मधुरिम कलरव विहगों का दुख, देता है। शेष बचीं खुशियों को भी हर, लेता है।। मेरी पीड़ा बोल भला कब , पाती है। याद तुम्हारी जब-जब मुझको, आती है।। कोकिल तानों से गूँजे जब, अमराई। बहती रहती जब-तब शीतल, पुरवाई।। डाल दिया है अवसादों ने, अब डेरा। मन आँगन में नीरवता का, है घेरा।। गीत विरह के कोई विरहन, गाती है। याद तुम्हारी जब-जब मुझको, आती है।। प्रेमी जन यह बात सभी से, कह देना। सरल नहीं है मनचाहे को, पा लेना।। मेरे संगी साथी केवल, तारे हैं। वही नयन को लगते अब तो, प्यारे हैं।। विरहानल पी आँख छलक ही, जाती है। याद तुम्हारी जब-जब मुझको, आती है।। *- -©ऋषभ दिव्येन्द्र*

कविता ©सम्पदा मिश्रा

  जैसे हम सब गांव पधारे अम्मा झट से शर्बत लायीं।  रोटी रण में पड़कर हम तो  दुख भी स्वजनों का सहते थे सारा घर था द्रव्य भरा पर हम तो बस छुट्टी तकते थे, कोई मन आहत करता था हमको घर की याद सताती चाहे जिसको भी डिव भाये हमको गुड़ की राब सुहाती आने पर सबके झट से माँ पहले जग में राब मिलाई जैसे हम सब गाँव पधारे अम्मा झट से शर्बत लायीं।  में में जब करती फिर मुघनी   जो थी घर की नौकर दासी  खाने वह मट्ठा तरबूजा - वह मालिक के घर ही आती   आगे हम होकर फिर क्यों ना गढ़ इस दास प्रथा का तोड़े मुघनी जिसमे है जकड़ी सी फिर ज़ंज़ीर वही क्यों जोड़े माज़ा जब अब प्यास बुझाये  राब दिखी तो वह ललचायी जैसे हम सब गांव पधारे अम्मा झट से शर्बत लायीं प्रारम्भिक क्षण में शहरों से  गांव कभी जब वापस आते  अम्मा झटपट राब उठाती खुश होकर रोटी हम खाते  अब तो सबको मालुम होगा कैसी विपदा राब हुई है  पेप्सी अब तो फैशन में है सबका यह अभिशाप हुई है   स्लाइस डिव आने पर सबने देसी स्वाद दिए विसरायी जैसे हम सब गाँव पधारे अम्मा झट से शर्बत लायीं। ©सम्पदा मिश्रा

दोधक छंद- हनुमान ©रजनीश सोनी

वन्दे वागेश्वरी नमन लेखनी छंद- दोधक छंद वर्णिक (11वर्ण)  भगण भगण भगण गुरु गुरु S I I    S I I    S I I    S S जै कपि श्रेष्ठ  विलक्षण न्यारे।  अञ्जनि  नंदन  राम  दुलारे।।  राम सिया  पद सेवक  सन्ता।  वीर शिरोमणि  जै हनुमन्ता।।  लूम   लपेट    पहेटन    हारी।  वज्र  गदा  हनि  दुष्ट  सँहारी।।  मूँज जनेउ  सुशोभित  काँधे।  श्री  हनुमंत  शनिश्चर  साधे।।  भीम  महा बलशील  लजाने। गर्व   तिरोहित  हो  पहचाने।।  श्री  रघुवीर    भरोष   लगाये।  लाय  सजीवन  प्राण बचाये।।  सिन्धु फलाँगि गये गढ़ लंका।  मारि  निशाचर  भूधर  बंका।।  बाग उजारि अशोक विशोका।  रावण दंभ  घटे  तिहुँ लोका।।  सन्न सभा  लखि रामहि दूता।  बाँधि सके कहँ  तार न बूता।।  लंक जरो जब जानिन सीता।  ढाढ़स लागि  भरोष अभीता।।  आवत  देखि  उमंग समाजा।  दुर्घट काज  कपीश्वर साजा।।  राम  सनेह   हिये   लिपटाये।  सीय  सँदेश  कपीश  बताये।।  ©रजनीश सोनी