लघुकथा- अधूरी मोहब्बत ©संजय मिश्रा

नमन, माँ शारदे

नमन, लेखनी



ये मोहब्बत भी गज़ब की शै बनाई है ऊपर वाले ने, चाहो न चाहो हो जाती है बस।

ये अफ़साना उस   किशोरावस्था का है , जो परीकथाओं और ख्वाबो ख्यालों की रंगभरी अनुभूतियों से भरी उम्र , समाज के अनुसार बहुत खतरनाक वयसन्धि मानी जाती है।  खैर ये उनकी अपनी राय पर मोहब्बत को उसकी फ़िक्र कंहा ।

     बात काफी पुरानी है तो 30-35 साल पीछे चलते है 

     एक छोटा सा प्रशिद्ध  शहर था । उसमें  एक प्यारा सा मोहल्ला था जिसमें ये दोनों रहते थे । अरे  भाई और भी लोग रहते थे पर इस कहानी के दोनों पात्र वंही रहते थे ।

     दोनों के पिता सरकारी महकमों में उच्च पदासीन थे, तो उन सरकारी बंगलो में उनके भी घर थे , आसपास सभी सरकारी मुलाजिमों के घर थे सब सभ्रांत और पढेलिखे समझदार और उस दौर के हिसाब से आधुनिक लोग थे । सो सभी लड़के लड़कियां साथ में बैडमिन्टन खेलते और सहज दोस्ती रखते ।

     वंही उनकी मुलाक़ात हुई थी , वो अपने करीबी रिश्तेदार के यंहा रहकर अपनी पढाई  पूरी कर रहा था , सो दोस्तों के साथ घर के सामने बने छोटे से बगीचे में शाम को आ पंहुचता। 

     वो देखने में गोरा चिट्टा स्मार्ट सा किशॊर था, ओठों के ऊपर पतली सी मूंछो की रेखा उसके जवानी की तरफ कदम  बढ़ाने की सिफारिश सी करती जान पड़ती थी। और वो तो बहुत ही खुबसूरत और प्यारी थी दुधिया गुलाबी रंगत,बड़ी बड़ी कजरारी आँखे, गुलाबी होठ काले घने लम्बे बाल किसी सुकुमार कवि की खुबसूरत काल्पनिक कविता सी ,वो भी स्कुल से फुर्सत हो वंहा आ जाती ।

     धीरे धीरे वो एक दुसरे की तरफ आकर्षित हो खिचते चले गये वो उसे देखता तो उसके चेहरे पर सुकून सा आ जाता और वो भी उसे देख कर  आश्वस्त हो जाती ।

वो बैडमिन्टन खेलते उतनी देर एक दुसरे के ख्यालों में गुम रहते । न उन्हें लोगों की परवाह होती न समय की । एक दुसरे के साथ होना और एक दुसरे को देखते रहना ही उनका प्यार था ,न उन्हें उस प्यार का अंजाम पता था नाही उन्होंने प्यार की कोई मंजिल तय कर रखी थी । वे साथ थे और बहुत खुश थे । 

मन की कल्पनाओं में जरुर दोनों ने एक दुसरे को  दिल में बसा रखा था ।दोनों एक दुसरे को देख कर हौले हौले मुस्कुराते , कहते हैं मोहब्बत गूंगे का गुड़ होती है, वो कहावत इन बेचारों  पर एकदम सटीक बैठती थी । 

      पर  मोहब्बत छिपती नहीं है चाहे लाख जतन करो सो कुछ दोस्तों को इस मोहब्बत की ख़बर हो ही गयी , अब मोहब्बत थोड़ी रूमानी भी हो गयी। दोस्त इक्कट्ठे होते खेलते  पर इसकी निगाहें उसी का इंतजार करती बेताबी से । जैसे ही वो दिखाई देती दोस्त इशारा करते,  फुसफुसाते भाभी आ गई , चलो तुम्हारा मैच रख देते है ।

      ये लाल होते चेहरे के साथ मुस्कुराते हुए हामी भरता और खेल शुरू हो जाता दोनों खेलते सपने बुनते , सबसे निगाहें चुराकर एकदूसरे को चोरी-चोरी देख लेते और शर्माते रहते । न उसने कभी कुछ कहा न इसने अपनी चाह बताई ।

फिर एक दिन लड़के के रिश्तेदार वंहा से ट्रांसफर हो गये वो बिना कुछ कहे वंहा से रुखसत हो गया । नये शहर नए कालेज में रमने लगा जीवन कठिन था, परिवार का बड़ा बेटा था सो जिम्मेदारियां भी थी । जिन्दगी की भागदौड़ में वो उसके मस्तिष्क से धूमिल हो गई थी, पर दिल के किसी कोने में आबाद थी। 

      किस्मत से उसे एक अच्छी सी नौकरी मिल गई और घर वालों ने एक सुशील सी लड़की देख उसका ब्याह भी रचा दिया ।

एक बार किसी अचानक पड़े मौके पर उसे उसी शहर वापिस जाना पड़ा , स्टेशन पर पैर रखते ही उसकी सभी पुरानी यादें फिर महक उठीं ।

     पुराने यार दोस्त मिले तो पूछताछ भी हुई , पता चला उसके जाने के  कुछ समय बाद उसकी किसी बहुत बड़े घर में शादी हो गई और वो विदेश जा बसी । वो मुस्कुरा उठा एक राहत भी थी कि वो खुश है।

 फिर भी दिल के गुमनाम किसी कोने में जो प्यार की कोंपल थी वो इन यादों की सुनहरी धुप में अब भी वैसी ही सर उठाये मुस्करा रही थी । 

      दिमाग़ अक्सर कहता क्या करना जाने दो पर दिल दिमाग की सारी नसीहते नकार देता । वैसे भी दिल और दिमाग़ की जंग में जीत तो हमेशा दिल की होती है।

     अब भी कभी जब उस शहर के पास से गुजरना होता है, आँखे न जाने क्यों उसे ढूंढ़ती है कैसी होगी वो खुश तो होगी न, मुझे कभी याद करती होगी क्या, एक बार दिख जाए तो पूछ लूँ ठीक तो हो न , उन्होंने कभी एक दूसरे को पा लेने की चाह नहीं की थी क्योकि वो कभी बिछड़ना ही नहीं चाहते थे । कितनी खुबसूरत थी ये अधूरी मोहब्बत, अधूरा फ़साना ।

 

 ©संजय मिश्रा

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