कविता ©सम्पदा मिश्रा

 



जैसे हम सब गांव पधारे

अम्मा झट से शर्बत लायीं।



 रोटी रण में पड़कर हम तो

 दुख भी स्वजनों का सहते थे

सारा घर था द्रव्य भरा पर

हम तो बस छुट्टी तकते थे,

कोई मन आहत करता था

हमको घर की याद सताती

चाहे जिसको भी डिव भाये हमको गुड़ की राब सुहाती

आने पर सबके झट से माँ

पहले जग में राब मिलाई

जैसे हम सब गाँव पधारे

अम्मा झट से शर्बत लायीं।


 में में जब करती फिर मुघनी 

 जो थी घर की नौकर दासी 

खाने वह मट्ठा तरबूजा -

वह मालिक के घर ही आती 

 आगे हम होकर फिर क्यों ना

गढ़ इस दास प्रथा का तोड़े

मुघनी जिसमे है जकड़ी सी

फिर ज़ंज़ीर वही क्यों जोड़े

माज़ा जब अब प्यास बुझाये

 राब दिखी तो वह ललचायी

जैसे हम सब गांव पधारे

अम्मा झट से शर्बत लायीं


प्रारम्भिक क्षण में शहरों से

 गांव कभी जब वापस आते 

अम्मा झटपट राब उठाती

खुश होकर रोटी हम खाते

 अब तो सबको मालुम होगा

कैसी विपदा राब हुई है

 पेप्सी अब तो फैशन में है

सबका यह अभिशाप हुई है

  स्लाइस डिव आने पर सबने

देसी स्वाद दिए विसरायी

जैसे हम सब गाँव पधारे

अम्मा झट से शर्बत लायीं।



©सम्पदा मिश्रा

टिप्पणियाँ

  1. अत्यंत भावपूर्ण एवं हृदयस्पर्शी कविता 💐🙏🏼

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  2. हमको गुड़ की राब सुहाती 😁😁😁😁 अत्यंत देशी स्वादिष्ट कविता मैम, पुराने क्षण जीवंत हो उठे, नमन है। 🙏🍃

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  3. अत्यंत हृदयस्पर्शी कविता 🌹🌹🌹🌹

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