ग़ज़ल -ज़ुस्तज़ू ©संजीव शुक्ला
हमारी जुस्तज़ू का हद से कुछ आगे निकल जाना l
तुम्हारा दर तलक आ-आ के फिर रस्ता बदल जाना ll
बहुत बेचैन करता है...... किसी का मुन्तज़िर होना....
कि वो करवट बदलना बारहा छत पर टहल जाना ll
रही ख़्वाबों के महलों की हसीं तामीर यूँ बाक़ी....
नज़र में चांदनी दे तीरगी में शब का ढल जाना ll
बहुत आसाँ है ख्वाहिश की शमा हम भी जला तो लें..
क़रार-ओ-चैन के परवाने का मुमकिन है जल जाना ll
सुना है अक्स मह का झील में उतरा रहा शब भर...
के हम तकते रहे पानी .....मछलियों का उछल जाना ll
बहुत तकलीफ देता है किसी का रुख बदल लेना...
वो उनका अजनबी सा यूँ गुज़र कर आजकल जाना ll
उजाड़ा जिन दरख्तों को......... बहारों ने कभी खुद ही...
बहुत मुश्किल है उनका"रिक्त"फिर से फूल फल जाना ll
©संजीव शुक्ला 'रिक्त '
बेहद खूबसूरत, उम्दा और संजीदा गजल सर जी 🙏💐💐💐💐
जवाब देंहटाएंबेहद उम्दा 👌👌
जवाब देंहटाएंआभार लेखनी 🙏
जवाब देंहटाएंबहुत बेहतरीन ग़ज़ल🙏
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत ही बेह्तरीन ग़ज़ल सर जी
जवाब देंहटाएंनमन 🙏
बेहतरीन रूमानी गज़ल 💐💐💐🙏🏼
जवाब देंहटाएंकमाल ग़ज़ल हुई सर 👏✨🌟
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत ग़ज़ल
जवाब देंहटाएंबेहद खूबसूरत गज़ल भाई 🙏🙏🌺🌺
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर ग़ज़ल सरजी👌🙏🙏
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