गजल ©विपिन बहार
सुकूँ से तोड़ के डाली,जहालत मौज लेती है ।
लड़ाकर धर्म से देखों, सियासत मौज लेती है ।।
हमें उड़ते परिंदे ही मियाँ अच्छे बहुत लगते..
परिंदे कैद करके तो,शराफत मौज लेती है ।।
मिली तारीख पर तारीख फिर भी आस क़ायम है..
कटा कर रोज यूँ चक्कर,अदालत मौज लेती है ।।
ख़ुदा ने यार सब कुछ छोड़कर उसको बनाया है...
हमारा दिल वहाँ लट्टू,इबादत मौज लेती है ।
सभी के साथ रहने से इमारत की बुलंदी है...
हुआ जब घर में बँटवारा,अदावत मौज लेती है ।।
हमारे शेर सुनकर के सुनों तारीफ कम करना..
अजी तारीफ ज्यादा हो,इनायत मौज लेती है ।।
© विपिन"बहार"
बेहतरीन ग़ज़ल🙏
जवाब देंहटाएंसादर आभार आपका👏
हटाएंलाजवाब
जवाब देंहटाएंसादर आभार भाई जी💐
हटाएंBahut Sundar gazal 👌👌
जवाब देंहटाएंबेहतरीन गज़ल हुई सर 👏🙏
जवाब देंहटाएंबेहद सटीक एवं प्रभावशाली गज़ल 💐💐💐
जवाब देंहटाएंअत्यंत सटीक एवं सार्थक गज़ल 👏👏👏💐💐
जवाब देंहटाएंबेहतरीन ग़ज़ल 🌸
जवाब देंहटाएंगजब गजब गजब
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