ग़ज़ल - मुसाफ़िर ©संजीव शुक्ला
बहृ - बहरे रमल मुसम्मन मशकूल सालिम मज़ाइफ़ [दोगुन]
फ़यलात फ़ाइलातुन फ़यलात फ़ाइलातुन
वज़्न - 1121 2122 1121 2122
मैं डगर-डगर से गुज़रा मैं शहर-शहर गया हूँ l
मैं हूँ रहगुज़र से वाकिफ हर एक दर गया हूँ ll
मैं क़लम का हूँ मुसाफ़िर,मैं अदम,उदास शा'इर....
अनजान रास्तों पर.......... करता सफ़र गया हूँ ll
न करार हूँ ज़िगर का...न मैं नूर हूँ नज़र का....
मैं मलाल हर ज़हन से जो किया कगर गया हूँ ll
न हुआ कभी सवेरा.... मैं सियाह सा अँधेरा...
शब तीरगी की दिल में बन कर उतर गया हूँ ll
इक ग़मज़दा तराना.....अगलात का फ़साना....
मैं हरेक रंज़-ओ-ग़म की हद से गुज़र गया हूँ ll
बुझता हुआ शरारा.............इक टूटता सितारा...
के धुआँ हुआ फलक पर मैं बिखर-बिखर गया हूँ ll
मैं हूँ "रिक्त"अजनबी सा... नाकाम ज़िंदगी सा...
के उठी नज़र सवाली मैं जिधर-जिधर गया हूँ ll
© संजीव शुक्ला 'रिक्त'
अद्भुत
जवाब देंहटाएंबेहतरीन ग़ज़ल
जवाब देंहटाएंअद्भुत सर...👏🙏
जवाब देंहटाएंबेहतरीन मर्मस्पर्शी गज़ल 🙏🏼💐💐
जवाब देंहटाएंहृदयस्पर्शी ग़ज़ल, लाजवाब🙏🙏👏
जवाब देंहटाएं😊💐
हटाएंबेहद खूबसूरत और भावपूर्ण गज़ल 👏👏🌹🌹
जवाब देंहटाएंBahut sundar Sirji 🙏🙏
जवाब देंहटाएंबहुत ही लाजवाब ग़ज़ल 👌👌💐💐
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