छलिया ©नवल किशोर सिंह
नेह नटखट डोर छलिया।
तोड़ता चितचोर छलिया।
नेत्र मुकुलित जागरण से।
छाद तन श्वेतावरण से।
लेप पीड़ा बोध आनन।
भीत बेला बीच कानन।
बेकली घनघोर छलिया।
भाग्य छल को योजती है।
मीत मन को खोजती है।
तरु तना कादम्ब बनके।
पास था आलम्ब बनके।
छल गया मन मोर छलिया।
डाल टूटा भरभराकर।
पाँव में खटका लगाकर।
चार पथ से सामना है।
एक लेकिन थामना है।
पग धरूँ किस ओर छलिया।
-©नवल किशोर सिंह
अद्भुत अप्रतिम सृजन सर जी 👌👌👌💐💐💐
जवाब देंहटाएंBahut Sundar rachna Sirji 👌👏
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार तुषार जी
जवाब देंहटाएंउम्दा सृजन👌👌
जवाब देंहटाएंअप्रतिम सुंदर 👌🏼👌🏼🙏🙏🙏
जवाब देंहटाएंअत्यंत सुंदर रचना सर 👏🏻👌🙏🙏
जवाब देंहटाएंअद्भुत अप्रतिम 👌👌👌👏👏👏🙏
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंअद्भुत सृजन 🙏
जवाब देंहटाएं👌👌👌
जवाब देंहटाएंOoo... Very nice Sir ji...🙏👌✨
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