भुखमरी ©विपिन बहार
नून रोटी भी नही अधिकार में ।
घास खाती जिंदगी परिवार में ।।
बैठ कलुआ ज्ञान अब यों झोंकता ।
श्वान जैसे बेसबब वह भौंकता ।।
दाल-चावल जो धरा पर है पड़े ।
दीन अब वह भूख वश यों घोटता ।।
मौत दिखती भूख के आकार में ।
घास खाती जिंदगी परिवार में ।।
दो टका भी तो नही इस हाथ हैं ।
दर्द की रेखा उभरती माथ है ।।
ना वसन है,ना जतन ना चादरें ।
शीत में बस कँपकपी ही साथ है ।।
नींद रोती दीन के किरदार में ।
घास खाती जिंदगी परिवार में ।।
दीनता यों वेदना से जा लड़ी ।
जिंदगी किस राह पर आकर खड़ी ।।
भुखमरी की क्या सुनाऊँ दास्ताँ ।
आँसुओं की दाल कुकर में पड़ी ।।
दर्द,आसूँ ही मिले आहार में ।
घास खाती जिंदगी परिवार में ।।
© विपिन"बहार"
बहुत बहुत खूब भाई जी 🙏
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट भाई जी🙏
जवाब देंहटाएंबेहद शुक्रिया भाई💐
हटाएंअत्यंत संवेदनशील एवं मार्मिक सृजन 💐💐
जवाब देंहटाएंजी बेहद शुक्रिया आपका मैंम👏👏
हटाएंUmda rachna bhaiya ji 🙏👌🙏
जवाब देंहटाएंधन्यवाद भाई जी👏👏
हटाएंअत्यंत हृदयस्पर्शी सृजन 👏👏👏💐💐
जवाब देंहटाएंसादर आभार मैंम👏👏👏
हटाएंसटीक 💐
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