कविता- जीवित ©गुंजित जैन

नमन, माँ शारदे

नमन, लेखनी



प्रेम प्रतीक्षा की धरती सिंचित आँसू से होती,

आशा की अस्पष्ट किरण रह-रह विश्वास पिरोती,

धूमिल किरणें लेकिन कब तक पोषण दे पाएंगी?

बिना धूप के खिलती कलियाँ भी मुरझा जाएंगी,

ज्यों ही काला मेघ, भयानक अंधकार का छाया,

प्रेम तुम्हारा मुझमें मुझको जीवित रखता आया।


पाकर किंचित किरणें, कोंपल कुसुमित तो हो आई,

बनी विटप तब हिय के भीतर उठी व्यथा दुखदाई,

श्वास-श्वास से पात झरे, कष्टों का पतझड़ आए,

झरते बिखरे पत्तों से मन आँगन ढँकता जाए,

पर्ण-पर्ण प्राणों के पादप का गिरकर अकुलाया,

प्रेम तुम्हारा मुझमें मुझको जीवित रखता आया।


बचते हैं यदि पत्ते पतझड़ के झंझावातों से,

जीवन का पथ निर्मम करती अति दुष्कर बातों से,

छद्म-वेश धारण कर तब रमणीय चिरैया आती,

तीक्ष्ण बाण रूपी शब्दों में गीत सुहाने गाती,

बैठ चिरैया ने पादप पर मृत्यु-गान ज्यों गाया,

प्रेम तुम्हारा मुझमें मुझको जीवित रखता आया।

©गुंजित जैन

टिप्पणियाँ

  1. वाह, अत्यन्त ही सुन्दर और भावपूर्ण रचना रची है आपने बन्धु 👌👌👏👏

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सुंदर,
    वाक़ई प्रेम ही जीवन को जीवित रखता है

    जवाब देंहटाएं
  3. अहा!!!! सटीक एवं भावपूर्ण कविता 💐

    जवाब देंहटाएं
  4. अत्यंत अत्यंत सुन्दर भावपूर्ण रचना भैया 🙏🍃

    जवाब देंहटाएं
  5. अत्यंत उत्कृष्ट रचना🌹🌹

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

याद तुम्हारी ©ऋषभ दिव्येन्द्र

कविता ©सम्पदा मिश्रा

ग़ज़ल ©धीरज दवे

लघुकथा- अधूरी मोहब्बत ©संजय मिश्रा