नज़्म - कातिल से कुछ ©अंशुमान मिश्र
कातिल-ए-चैन जो मासूम सी इक सूरत थी!
जाने वो तू था, या पत्थर की कोई मूरत थी!
मैंने रोका नहीं था, ना ही तू रुका, लेकिन,
तुझको मालूम था मुझको तेरी ज़रूरत थी!
तूने सुन रक्खे थे पिछले मेरे दर्दों के बयांँ,
तूने देखे थे पुराने मेरे जख्मों के निशाँ,
तुझको मालूम थी वो ईंट, जिसे खींचा तो,
टूट जाएगा मेरी सब्र'ओ'हिम्मत का मकाँ!
तेरी खुदगर्जी या मेरी किस्मत, जो भी हो,
गले लग कर'के जान की रुखसत, जो भी हो,
इस तरह कत्ल किया तूने रूह का मेरी,
फिर से उठने की अब नहीं हिम्मत, जो भी हो,
क्या पता तूने भी न चाहा था ये हो जाए,
करना चाहूंँ यकीन तो भी कैसे ही आए,
तेरी खुदगर्जी की शमशीर पे मेरा खूंँ है!
क्या पता तेरे आंँसुओं से कल ये धुल पाए,
मेरे हाफ़िज़, मेरे कातिल, जा तू आबाद रहे!
करके नाशाद गया, पर न तू नाशाद रहे!
कातिल-ए-रूह मेरे, हो भला तिरा लेकिन,
मेरा हर अश्क खुदा गिन रहा है, याद रहे!
ये याद रहे!
ये याद रहे!
©अंशुमान मिश्र
बेहद खूबसूरत संजीदा नज्म
जवाब देंहटाएंबेहद शुक्रिया दीदी❤️✨🙏
हटाएंबेहतरीन संजीदा नज़्म💐
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार मैम❤️🙏
हटाएंBahut hi badhiya 👌
जवाब देंहटाएंAiti uttam nazm
जवाब देंहटाएंबेहद उम्दा नज़्म भाई👌👌
जवाब देंहटाएंमेरा हर अश्क़ खुदा गिन रहा है याद रहे...वाहहहहहह। बेहतरीन नज़्म
जवाब देंहटाएंबेहतरीन नज़्म 💐
जवाब देंहटाएंबेहद संजीदा और दिल को छूने वाली नज़्म 💐💐❣️❣️
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