रत्ती भर आस ©गुंजित जैन
कभी कभी कोई आस ज़िंदगी भर कायम रह जाती है, चाहे उस आस को रखने की कोई बुनियाद बचे, या न बचे।
ऐसी ही मेरी एक आस हो तुम, जो यूँ ही बे-बुनियाद बनी रहती है, और मेरी रचनाओं में से छिपकर मुझे निहारती रहती है।
दीवार पर लटकी पौने दस इंच चौड़ी घड़ी और हर रोज़ बदलती तारीखें ये बताती हैं कि वक़्त तो तुम्हारे बिना भी गुज़रता है। मगर, तुम साथ होते तो शायद ये वक़्त और ज्यादा बेहतर गुज़रता, शायद ये बदलती तारीखें मुझे रास आ जाती और शायद इस घड़ी के फ़ीके रंग में भी एक चमक साफ़ देख पाता। इन्हीं शायदों को सोचते सोचते अक़्सर मुस्करा देता हूँ।
तुम्हारा मेरी ज़िंदगी में आना, कुछ बेतुकी बातों में तर्क खोजने की तरह है,
जिसमें कोशिशें तो बहुत हैं, मगर परिणाम, कुछ भी नहीं। इन्हीं कोशिशों के बीच रोज़ सुबह का सूरज बढ़ते बढ़ते कब दूसरे छोर पर पहुंच जाता है, मालूम ही नहीं चलता।
भोर की प्रभाती शुरू हो कर, संध्या आरती बन कब ख़त्म हो जाती है, पता नहीं!
शाम का ये आहिस्ते आहिस्ते ढलता सूरज मुझे कुछ खुद सा लगता है। कुछ इसी तरह तुम्हारे बिन मेरा जीवन भी रोज़ धीमी गति से ढलने में लगा रहता है। मगर मैं अकेला नहीं ढलता, मेरे साथ ढलती है कुछ तुम्हारी याद और कुछ मेरी आस। और ढलते ढलते हर बार इन आँखों को नम कर जाती हैं।
हर शाम कोशिश करता हूँ कि इन नम आँखों में छिपी आंसू की बूंदों में ही अपनी आस को कहीं समेटकर रख दूं, मगर समेटते समेटते ही आस हर बार बिखर जाती है।
फ़िर अंत में रत्ती भर आस, मुट्ठी भर शाम और नम आँखों के सिवा कुछ नहीं बचता। कुछ भी नहीं!
©गुंजित जैन
Bahut khoob Bhai ❤️👌
जवाब देंहटाएंसादर आभार भाई जी🙏
हटाएंगज़ब 👏👏👌
जवाब देंहटाएंसादर आभार आपका🙏
हटाएंबहुत सुंदर भावपूर्ण लेखन 👏👏👏
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत उम्दा लेख 👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻😊❤️
जवाब देंहटाएंसादर आभार दीदी🙏
हटाएंअत्यंत संवेदनशील एवं भावपूर्ण सृजन 👌👌👌👏👏👏
जवाब देंहटाएंसादर आभार आपका🙏🙏
हटाएंवाह खूब
जवाब देंहटाएंसादर आभार सर🙏🙏
हटाएंWaah 👏👌👌
जवाब देंहटाएंबहुत भावपूर्ण 👌👌👌
जवाब देंहटाएंसादर आभार आपका🙏
हटाएंवाह्ह्हह्ह्ह्ह 💐
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