ग़ज़ल - नज़र ©संजीव शुक्ला
बहृ - बहरे रमल मुसम्मन मख़बून महज़ूफ़
फ़ाइलातुन फ़यलातुन फ़यलातुन फ़ेलुन
वज़्न - 2122 1122 1122 22
आखिरी शेर नज़र कर के... चला जाऊँगा l
पेश कुछ और हुनर कर के चला जाऊँगा ll
महफ़िलें,बज़्म ये सजती रहेंगी रोज़ाना....
मैं कतारों से कगर कर के चला जाऊँगा ll
जाग कर रात गुज़ारी हैं खुली आँखों में....
नींद में सख्त ज़िगर कर के चला जाऊँगा ll
दर-ब-दर राह में भटका हुँ...थका हूँ बेहद......
ख़ाक हूँ सिर्फ बिखर कर के चला जाऊँगा ll
खोज लेना मुझे अश'आर में जब भी चाहो.....
हर्फ़-दर-हर्फ़ बसर कर के... चला जाऊँगा ll
जब कभी बज़्म सजे याद....मुझे कर लेना.....
बस दुआओं में असर कर के चला जाऊँगा ll
हो चुके अश्क़ फ़ना चश्म से बादल बन कर......
फ़िर निगाहों को बहर कर के चला जाऊँगा ll
©संजीव शुक्ला 'रिक्त'
Bahut bahtreen gazal Sirji 😍😍
जवाब देंहटाएंशुक्रिया तुषार 😊💐
हटाएंबेहतरीन मर्मस्पर्शी गज़ल 👌👌👌👏👏👏🙏🙏
जवाब देंहटाएं🙏💐
हटाएंउम्दा ग़ज़ल🙏🙏
जवाब देंहटाएंइस ग़ज़ल की कितनी तारीफ करें.... हर हर्फ़ में आप ही बसर कर रहे हैं सर❤️❤️❤️❤️❤️
जवाब देंहटाएंशुक्रिया ग़ज़ल जी 😊💐
हटाएंबहुत खूब 👌
जवाब देंहटाएंशुक्रिया 🙏💐
हटाएंदिल को छू लेने वाली गज़ल 👌👌👌👌
जवाब देंहटाएंशुक्रिया बहन जी 🙏💐
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